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प्रस्तावना
सोमदेव सूरिने पूजकोंके दो भेद किये हैं-एक पुष्पादिमें पूज्यकी स्थापना करके पूजन करनेवाले और दूसरे, प्रतिमाका अवलम्बन लेकर पूजन करनेवाले । उन्होंने पूजकको फल, पत्र और पाषाण आदिकी तरह अन्य धर्मको मूर्ति स्थापना करनेका निषेध किया है तथा दोनों प्रकारके पूजकोंके लिए अलग-अलग विधि बतलायी है। वसुनन्दिने सोमदेवके द्वारा विहित उक्त दोनों प्रकारोंको सद्भावस्थापना तथा असद्भावस्थापना नाम दिया है । साकार वस्तु ( प्रतिमा ) में अरहन्त आदिके गुणोंका आरोपण करना सद्भावस्थापना है और अक्षत वराटक ( कमलगट्टा ) वगैरहमें अपनी बुद्धिसे 'यह अमुक देव है' ऐसा संकल्प करना असद्भावस्थापना है । वसुनन्दिने इस कालमें असद्भाव स्थापनाका निषेध किया है । आशाधरने निषेध नहीं किया। सम्भवतया प्रतिमाके सामने न होते हुए पुष्पादिमें अर्हन्तको स्थापना करके पूजन करनेका हो निषेध वसुनन्दिने किया है । इससे भ्रम होनेकी सम्भावना है । आजकल जिनप्रतिमाके अभिमुख ही पुष्पक्षेपण करके स्थापना की जाती है। वसूनन्दिने इसे नामपजा कहा है। उन्होंने पजाके छह भेद किये हैंनामपूजा, स्थापनापूजा, द्रव्यपूजा, भावपूजा, क्षेत्रपूजा और कालपूजा । अरहन्त आदिका नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेशमें पुष्पक्षेपण करना नामपूजा है। आगे अन्य पूजाओंके लक्षण इस प्रकार दिये हैं, जिनप्रतिमाकी स्थापना करके पूजन करना स्थापनापूजा है । जल गन्ध आदि द्रव्यसे प्रतिमादि द्रव्यको पूजा करना द्रव्यपूजा है । जिन भगवान्के पंचकल्याणकोंको भूमिमें पूजा करना क्षेत्रपूजा है और भक्तिपूर्वक जिन भगवान्के गुणोंका कीर्तन करके जो त्रिकाल वन्दना की जाती है वह भावपूजा है, नमस्कार मन्त्रका जाप और ध्यान भी भावपूजा है। ... अमितगतिने अपने श्रावकाचारमें पर्वाचार्यों के अनुसार वचन और शरीरको क्रियाको रोकनेका नाम द्रव्यपूजा और मनको रोककर जिनभक्तिमें लगानेका नाम भावपूजा कहा है। उनके अपने मतसे गन्ध, पुष्प नैवेद्य, दीप, धूप और अक्षतसे पूजा करनेका नाम द्रव्यपूजा और जिनेन्द्रके गुणोंका चिन्तन करनेका नाम भावपूजा कहा है।
सोमदेवने पूजाके ये भेद नहीं बतलाये । ऊपर जिन दो प्रकारके पूजकोंका उल्लेख किया है उनके लिए सोमदेवने पजनकी दो विभिन्न विधियोंका वर्णन किया है। जो प्रतिमामें स्थापना नहीं करते उनके लिए अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्रको स्थापना करके प्रत्येकको अष्ट द्रव्यसे पूजा करना बतलाया है। उसके बाद क्रमसे दर्शनभक्ति, ज्ञानभक्ति, चारित्रभक्ति, अर्हद्भक्ति, सिद्ध भक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, शान्तिभक्ति और आचार्यभक्ति करना बतलाया है। पूजाका यह प्रकार वर्तमानमें प्रचलित नहीं है।
१. उपा० पृ०२१७ । २. "समावासब्भावा दुविह ठवणा जिगेहि पण्णत्ता। सायारवंतवत्थुम्मि जं गुणारोपणं पढमा
॥३८३॥ अक्खय वराडओ वा अमुगी एसोत्ति णिययबुद्धीए । संकप्पिऊण वयणं एसा विडया
असम्मावा ॥३८४॥" -वसुनन्दिश्रा० । ३. "हुण्डावसपिीए विइया ठवणाण होदि कायन्वा । लोए कुलिंगमहमाहिए जदो होइ संदेहो॥३८॥"
-वसुनन्दिश्रा० ४. “णामढवणा दबे खिस काले वियाण मावे य । छबिहपूजा मणिया समासो जिणवरिंदहि॥३८॥" ५."उच्चारिऊण णामं असहाईणं विसुद्धदेसम्मि । पुप्फाणि जं खिविजंति वणिया णामपूया सा॥३८२॥', ६. "वचो विग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनः ॥१२॥" ७. "गन्धप्रसूनसान्नाह्य दीपधूगक्षतादिभिः । क्रियमाणाथवा ज्ञेया द्रव्यपूजा विधानतः ॥१३॥ व्यापकानां विशुद्धानां जिनानामनुरागतः । गुणानां यदनुध्यानं भावपूजेयमुच्यते॥१४॥"-१२ परि० ।