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प्रस्तावना
बुलाकर उन्हें बलि या यज्ञभाग देनेका विधान है। यही बात उक्त श्लोकके पूर्वाद्धं द्वारा कही गयी है, “जिन देवोंको पूजनके प्रारम्भसे पहले आहूत किया था और जिन्होंने क्रमानुसार अपना-अपना भाग पा लिया है। वे मेरे द्वारा पूजित होकर अपने-अपने स्थानको जायें।"
जिनेन्द्रदेव तो न कहीं जाते हैं और न पूजाका द्रव्य ग्रहण करते हैं । तु वैदिक विधिके अनुसार इन्द्रादि देवताओंका आह्वान यज्ञमें किया जाता है और अग्नि देवताओंका मुख है। अतः उस-उस देवताके उद्देशसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक अग्निमें जो आहति दी जाती है वह उस-उस देवताको पहुँच जाती है, ऐसी वैदिक मान्यता है। उसी मान्यताका प्रभाव उत्तरकालमें जैनपूजाविधिमें भी प्रविष्ट हो गया प्रतीत होता है । इन्द्र, वरुण आदि वैदिक देवता हैं। उन्हींको प्रसन्न करके उनकी कृपाकामनाके लिए वैदिक यज्ञ किये जाते थे। यज्ञ तो जैनों और बौद्धोंके विरोधके कारण एक तरहसे बन्द हो गये। उसके साथ ही वैदिक देवताओंका भी पुराना स्थान जाता रहा, फिर भी लौकिक मान्यता बनी रही। सम्भवत: उसी मान्यताने जैनोंकी पूजाविधिको भी प्रभावित कर दिया। सोमदेवने तो केवल दिक्पालों और नवग्रहोंका आह्वान मात्र करके उनसे बलिग्रहण करनेकी प्रार्थना की है। किन्तु आशाधरने अपने प्रतिष्ठापाठमें नवग्रहोंका वर्णन करके उन सबको पृथक्-पृथक बलि प्रदान करनेका विधान किया है।
सोमदेवने रस, घी, धारोष्ण दूध, दही और अन्तमें जलसे अभिषेक करनेके पश्चात् जल, चन्दन, तन्दुल, पुष्प, हवि (नैवेद्य), दीप, धूप, फलसे जिन भगवानकी पूजाका विधान किया है। लिखा है, "अभिषेक महोत्सवके पश्चात् जिनेन्द्रदेवकी जल, चन्दन, तन्दुल, पुष्प, हवि, दीप, धूप और फलोंसे पूजा करके मैं उनका स्तवन करता हूँ, उनका नाम जपता हूँ, उन्हें चित्तमें धारण करता हूँ, शास्त्रको आराधना करता हूँ तथा त्रिलोकके ज्ञाता उनके ज्ञानरूपी तेजकी श्रद्धा करता है।"' अर्थात पजनके पश्चात् पूजकको जिनेन्द्रका स्तवन, जप, ध्यान आदि करना चाहिए। इस क्रियाके समाप्त होने के साथ पजनका पांचवा प्रकार समाप्त हो जाता है। इसके आगे छठे प्रकारमें पूजनके फलका कथन है। लिखा है, "हे भगवन् ! जबतक इस चित्तमें आपका निवास है तबतक सदा जिनचरणों में मेरी भवित रहे, संब प्राणियों में मेरा भक्तिभाव रहे, मेरी ऐश्वर्यरत बुद्धि सबका आतिथ्य करने में संलग्न हो, मेरी बुद्धि अध्यात्मतत्त्वमें लीन रहे. ज्ञानी जनोंसे मेरा स्नेहभाव रहे और मेरी चित्तवृत्ति सदा परोपकारमें लगी रहे । हे देव ! प्रातःकालीन विधि आपके चरणकमलोंकी पूजासे सम्पन्न हो, मध्याह्नकाल मुनियोंके समागममें बीते तथा सायंकालका समय भी आपके चारित्रका कीर्तन करने में व्यतीत हो। धर्मके प्रभावसे राज्यपदको प्राप्त हुआ राजा धर्मके विषयमें, धार्मिकोंके विषयमें और धर्मके हेतु चैत्यालय आदिके विषयमें सदा अनुकूल रहे। तथा प्रतिदिन जिनेन्द्रदेवके चरणोंकी पूजासे प्राप्त हुए पुण्यसे धन्य हुई जनता यथेच्छ उत्कृष्ट लक्ष्मीको प्राप्त करे।" यही पूजाका फल है। सोमदेवने जलादि पूजाका इसके अतिरिक्त अन्य कोई फल नहीं बतलाया कि अमुक वस्तुसे पूजा करनेसे अमुक लाभ होता है या अमुक उद्देशसे जल चढ़ाता हूं। भावसंग्रह (जा० ४७१-४७७)में तथा आशाधरके सागारधर्मामृत (३।३०)में इस प्रकारके फलका वर्णन पाया जाता है। दोनों प्रायः समान हैं। आशाधरने लिखा है, "अर्हन्तदेवके चरणोंमें जलकी धारा अर्पित करनेसे पापांकी शान्ति होती है, चन्दनसे शरीर सुगन्धित होता है, अक्षतसे अविनाशी ऐश्वर्य प्राप्त होता है, पुष्पमालासे स्वर्गीय- पुष्पोंकी माला प्राप्त होती है, नैवेद्य से लक्ष्मीका स्वामी बनता है, दीपसे कान्ति प्राप्त होती है, धूपसे परम सौभाग्य प्राप्त होता है, फलसे इष्ट की प्राप्ति होती है और अर्घमे मूल्यवान पद प्राप्त होता है।"
१. २. सो० उपा० श्लो० ५५९, ५६०-५६३ ३. "वार्धारा रजसः शमाय पदयोः सम्यक् प्रयुक्ताऽहंतः
सद्गन्धः तनुसौरमाय विभवाच्छेदाय सन्त्यक्षताः । यष्टुः स्रग्दिविजस्रजे चरुरुमास्वाम्याय दीपस्विपे धूपो विश्वगुत्सवाय फलमिष्टार्थाय चार्धाय सः॥"