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उपासकाध्ययन.
विषयक एक अन्य लघु ग्रन्थ तत्त्वानुशासन भी महत्त्वपूर्ण है, किन्तु वह भी उपासकाध्ययनसे पूर्वका प्रतीत नहीं होता। महापुराणके इक्कीसवें पर्वमें ध्यानका सुन्दर वर्णन है और वह प्रायः अकलंक देवके तत्वार्थ: वातिकका ऋणो है । सोमदेवने यद्यपि केवल सवा-सौ श्लोकों में ध्यानका वर्णन किया है. किन्तु वह एक स्वतन्त्र ग्रन्थसे कम नहीं। ध्यानकै पहले सोमदेवने अड़तीसवें कल्पमें जपविधिका कथन किया है। ध्यानसे पूर्वको अवस्था जप ही है । विधिपूर्वक जपमें अभ्यस्त हो जानेपर ही ध्यानका नम्बर आता है। इस दृष्टिसे इसका विशेष महत्त्व है।
सोमदेव पंचनमस्कार मन्त्रके जपनेपर विशेष जोर देते हैं, उनका कहना है कि- पंचनमस्कार मन्त्र अकेला भो सब मन्त्रोंका कार्य करने में समर्थ है । अन्य सब मन्त्र मिलकर भी इसका एक देशकार्य भी नहीं कर सकते । मन्त्रका उच्चारण शुद्ध और स्पष्ट होना चाहिए। जप पुष्पोंके द्वारा, अगुंलिपोंके द्वारा, कमलगट्टोंके द्वारा या स्वर्ण, रत्न वगैरहको मालाके द्वारा किया जा सकता है। वाचनिक जपसे मानसिक जपका विशेष महत्त्व है। जप करनेवाले व्यक्तिको इन्द्रियोंको निश्चल रखकर और पर्यकासनसे बैठकर हो जप करना चाहिए, तथा श्वास और उछ्वासके प्रति भो सावधान रहना चाहिए। णमो अरिहंताणं और णमो सिद्धाणके अन्तमें एक, णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणके अन्तमें एक और णमो लोए सव्वसाहूणके अन्तमें एक, इस तरह तीन श्वासोच्छ्वास में एक बार नमस्कार मन्त्र जपना चाहिए। उसमें अभ्यस्त हो जानेपर ध्यानका अभ्यास करना चाहिए । एक हो विषयमें चित्तको स्थिर करनेका नाम ध्यान है। ध्यान करते समय अन्तरंग और बहिरंग पत्थरको मूर्तिकी तरह निश्चल होने चाहिए और विपत्ति आनेपर भी घबराना नहीं चाहिए । वैराग्य, ज्ञान, निष्परिग्रहिता, चित्तकी स्थिरता और कष्ट सहनको क्षमता, ये ध्यानके साधन है। रोग, शोक, प्रमाद, वगैरह उसके बाधक है । सोमदेव सूरिने अन्य आम्नायमें कही गयी हठयोगको प्रक्रियाका निषेध किया है । जो योगी होकर भी इन्द्रियोंके वशीभूत है वह योगी नहीं है।
सभी जैन ग्रन्थों में ध्यानके चार भेद बतलाये हैं-आर्त, रोद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान । इनमें-से आदिके दो ध्यान त्याज्य हैं; क्योंकि वे संसारको बढ़ानेवाले हैं। शेष दो ध्यान ही करने योग्य हैं और वे ही मोक्षके कारण है। उनमें से प्रत्येक ध्यानके चार-चार भेद हैं। सोमदेवने ध्यानके दो भेद और भी कहे हैं-एक सबीज ध्यान और एक अबीज ध्यान । सबीज ध्यानमें मन वायुशन्य प्रदेशमें स्थित दीपशिखाकी तरह निश्चल रहता है और तत्त्वके दर्शनसे उल्लासयुक्त होता है । अबीज ध्यानमै चित्त निविचार हो जाता है तथा आत्मा आत्मामें ही लीन हो जाता है । अर्थात् सबीज ध्यानमें मन सविकल्प रहता है, किन्तु अबीज ध्यानमें निर्विकल्प हो जाता है । यह ध्यानकी उत्कृष्ट दशा है । सोमदेवने लिखा है कि जब पाँचों इन्द्रियाँ और मन स्वात्मामें लोन हो जाते हैं, तब अन्तस्तलमें ज्योतिका विकास होता है। चित्तकी एकाग्रताका नाम ध्यान है । आत्मा ध्याता है और आत्मा ही ध्येय है तथा वही उसके फलका स्वामी है। ध्यानका उपाय है इन्द्रियोंका दमन । असमर्थतासे विघ्न दूर नहीं हो सकते और न कातरतासे मृत्युके पंजेसे छुटकारा मिल सकता है । अतः बिना किसी प्रकारके खेदके परब्रह्मका ही चिन्तन करना चाहिए।
मनका नियन्त्रण किये बिना ध्यान सम्भव नहीं है । देवसेनने आराधनासारमें कहा है कि मनका निग्रह करनेपर आत्मा परमात्मा हो जाता है। योगीन्दुने परमात्मप्रकाश (२-१७२) में लिखा है कि सब प्रकारके रागोंसे और पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे चित्तको हटाकर आत्माका ध्यान करो। पूज्यपादने समाधिशतक (श्लो० ३० ) में लिखा है कि सब इन्द्रियोंको संयमित करके स्थिर अन्तरात्माके द्वारा एक क्षणके
१. उपा० श्लो० ६२२, ६२३, २. उपा० श्लो० ६१५, ६१६ ३. "णिग्गहिए मणपसरे अप्पा परमप्पो हवइ ।" ४. “सबहिं रायहिं छहिं रसहिं पंचहिं रूवहिं जंतु | चित्त णिवारिवि झाहि तुहुँ अप्पा देउ अणंतु ।"