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प्रस्तावना
यह कह दिया कि आहार-दान देने में यह विशेष ऊहापोह आवश्यक नहीं। वास्तवमें सोमदेवका उक्त कथन जैन सिद्धान्तानुसार मुनिचर्याका प्रतिपादक नहीं है। करुणादान या पात्रदानमें अन्तर है। करुणादान दया बुद्धिसे दिया जाता है, किन्तु पात्रदान देते समय पात्रका विवेक आवश्यक है। दान और दानविधि
बयालीसवें कल्पमें दानका वर्णन करते हुए सोमदेवने सर्वप्रथम गृहस्थोंको यथाविधि, यथादेश, यथाद्रव्य, यथागम, यथाकाल और यथापात्र दान देनेका विधान किया है। पुनः अपने कल्याणके लिए और दूसरोंके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी समृद्धिके लिए जो दिया जाता है उसे दान कहा है। अतः सम्यग्दर्शनादिमें जो संलग्न है वही सुपात्र होनेसे सर्वप्रथम दानार्ह माना गया है।
इस दृष्टिसे श्रावक और साधु दोनोंके ही लिए दानका बहुत महत्त्व है। यह पारलौकिक दृष्टिसे ही नहीं, लौकिक दृष्टि से भी आवश्यक है। धर्मको स्थितिके लिए गृहस्थ मार्ग और साधु मार्ग दोनों आवश्यक हैं, दोनोंमें-से एकके भी अभावमें धर्म कायम नहीं रह सकता। जैन साधु दिनमें गृहस्थके द्वारा आदरपूर्वक पड़गाहे जानेपर केवल एक बार आहार लेते हैं। उन्हें केवल आहारके लिए ही परापेक्षा रहती है । गृहस्थके बारह व्रतोंमें अतिथिको दान देना भी एक व्रत है। अतः गृहस्थको स्वपरोपकारको भावनासे प्रतिदिन दान देना चाहिए तथा साधुको अपना शरीर कायम रखनेके लिए भोजन ग्रहण करना चाहिए। जैन साधुके भोजनको विधि ऐसी है कि जैन प्रक्रियाका ज्ञाता श्रावक हो उस विषिसे आहार दे सकता है । अतः जैन आधु जैन श्रावकके ही घरपर आहार करते हैं। इस तरह परस्परमें श्रावक और साधु दोनों एक दूसरेसे बंधे रहते हैं । यद्यपि श्रावक जैन साधुके सिवाय अन्यको भी दान दे सकता है, किन्तु सर्वोत्तम दानपात्र साधु है अतः श्रावकके लिए सबसे प्रथम वही दानाह होता है ।
इसका यह तात्पर्य नहीं कि दूसरोंको दान देनेका निषेध है। धर्मबदिसे ये ही दानपात्र हैं, दया बुद्धिसे तो उन सभीको दान दिया जा सकता है जो दयाके पात्र होते हैं। इसीसे सोमदेवने बौद्ध, नास्तिक आजीवक आदि सम्प्रदायके साधुओंको दान देनेका निषेध करते हुए भी लिखा है कि जिनके चित्त दुराग्रहसे मलिन हैं और जो तत्त्वसे अपरिचित हैं उनके साथ गोष्ठी करनेसे कलह हो होती है पर उन्हें भी कारुण्य बुद्धिसे कुछ दिया जा सकता है ।
दानके प्रकार है-अभयदान, आहारदान, औषधदान और शास्त्रदान । इनमें से सोमदेव सूरिने अभयदानको सर्वोपरि स्थान दिया है। उन्होंने लिखा है कि सर्वप्रथम गृहस्थको सब प्राणियोंको अभयदान देना चाहिए। किसी भी रूप में उनके प्राणोंका घात नहीं करना चाहिए, उनको अपने जीवनकी ओरसे निर्भय कर देना चाहिए, उसके बिना सारा धर्म-कार्य व्यर्थ है । अन्य कोई दान मनुष्य करे या न करे, किन्तु अभयदान अवश्य करे, क्योंकि वह सब दानों में श्रेष्ठ है। जिसने अभयदान दिया, उसने सब दान दिये।
दानके उपर्युक्त भेद देयवस्तुकी अपेक्षासे हैं । दान देनेकी प्रक्रिया तथा भावनाको अपेक्षासे सोमदेवने दानके तीन भेद किये हैं-राजस, तामस और सात्त्विक । जो दान अपनी प्रशंसासे परिपूर्ण होता है और दूसरेके विश्वासके आधारपर दिया जाता है वह राजस दान है। पात्र और अपात्रका बिना विचार किये और बिना किसी आदर सम्मानके जो नौकरोंसे दान दिलवाया जाता है वह तामस है। और पात्रको देखकर स्वयं दाता जो श्रद्धापूर्वक दान देता है. वह सात्त्विक दान है। इनमें से सात्त्विक दान उत्तम है; राजस दान मध्यम है और तामस दान जघन्य है। दानके ये तीन भेद जैन परम्परामें सोमदेवसे पहले किसी ग्रन्थमें नहीं देखे गये । महाभारतमें इस प्रकारके भेद मिलते हैं। ध्यान और जप
ध्यानविधि नामक उनतालीसवें कल्पमें ध्यानका वर्णन है । ज्ञानार्णवमें ध्यानका विशेष तथा महत्त्वपूर्ण वर्णन है किन्तु वह उपासकाध्ययनके बाद रचा गया है। उसमें उपासकाध्ययनके श्लोक उद्धृत हैं । ध्यान