________________
द्वितीय अधिकार
३००००००x=६००००० (छह लाख) बिल संख्यात योजन व्यास वाले हैं। ( २४ लाख+६ लाख-३० लाख ) । इसी प्रकार द्वितीयादि पृथ्वियों में भी जानना चाहिए ।
योजनानां च संख्यातविस्तारा इन्द्रका मताः। धेरणीबद्धा असंख्यातविस्तृता बुखमाजनाः ॥४८॥ केचित् प्रकीर्णका ज्ञेयाः संख्ययोजनविस्तराः।
असंख्ययोजनध्यासाः केचित्पुष्पप्रकोएंकाः ।।४६।। अर्थः-दुःख के भाजनस्वरूप सम्पूर्ण इन्द्रक बिल संख्यात योजन विस्तार वाले और सम्पूर्ण श्रेणीबद्ध असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। पुरुषों के सदृश यत्र तत्र स्थित प्रकोणक त्रिलों में कुछ प्रकीर्णक बिल संस्थात योजन विस्तार बाले और कुछ असंख्यात योजन विस्तार वाले जानना चाहिये ॥४८-४६।।
योजनः पञ्च चत्वारिशल्लविस्तरान्वितः । सोभन्तकेन्द्रकश्चाद्यः प्रथमे पटलेमतः ।।५।। वृत्ताकारोऽन्तिमेश्वभ्रऽवधिस्थानेन्द्रकोऽन्तिमः ।
लक्षेकपोजनव्यासो निष्कृष्टो दुःखपूरितः ॥५१॥ अर्थः-प्रथम पुथिवी के प्रथम पटल में स्थित सीमन्त नामक प्रथम इन्द्रक बिल (गोलाकार) ४५००००० ( ४५ लाख ) योजन विस्तार वाला है और अन्तिम ( सप्तम ) नरक का गोलाकार, निकृष्ट और जीवों को दुःखों से पूरित करने वाला प्रबधिस्थान नाम का अन्तिम इन्द्र क बिल १००००० योजन विस्तार वाला है ।।५०-५१॥
सहस्र कानवत्याषट्शतः षट्षष्टि संयुतः । योजनानां द्वित्रिभागाभ्यां शेषाः सर्वेन्द्रका मताः ॥१२॥ व्यासेन क्रमतो हीयमानाश्च पटलं प्रति ।
जम्बूद्वीपप्रमो यावत् स्यादेकश्चरमेन्द्रकः ॥५३॥ अर्थ:- भाग से संयुक्त ६१६६६ योजन व्यास प्रत्येक पटल के प्रत्येक इन्दक के व्यास में से तब तक हीन करते जाना चाहिये जब तक कि अन्तिम इन्द्रक का व्यास जम्बूदीप अर्थात् १००००० योजन का प्राप्त होता है ।।५२-५३।।
विशेषार्थः...-प्रथम इन्द्रत्र बिल के विस्तार में से अन्तिम इन्द्रक का विस्तार घटा कर अवशेष में एक कम इन्द्रकों के प्रमाण का भाग देने पर हानि चय का प्रमाण प्राप्त होता है। यथा-प्रथम