________________
सिद्धान्तसार दीपक
विष्कम्मो निखिलोत्कृष्टावासानां श्रीजिनागमे । योजनानां जिनः प्रोक्तः सहस्रद्वादशप्रमः ॥७८।। प्रावासानां जघन्यानां ध्यासः कोशत्रयं भवेत् । उस्कृष्टभवनावीना मध्ये कुटोऽस्ति भास्वरः ॥७९॥ योजनत्रिशतव्यासः शतंकयोजनोन्नतः । जघन्यभवनावीना मध्ये कूटो जघन्यकः ॥८॥ एकगव्यूतिविस्तारो हेमरत्नमयोऽक्षयः।
क्रोशकस्य विभागानामेकभागसमुन्नतः ॥१॥ मर्थ:--पाठों प्रकार के व्यन्तर लेवों के रहने र स्थान पुर, भवन और आवास के भेद से तीन प्रकार के जानना चाहिए ।।७२।। मध्यलोक में (सम) पृथ्वी पर स्थित द्वीप समुद्रों में व्यन्तर देवों के जो निवास स्थान हैं उन्हें पुर कहते हैं । अधोलोक में खर और पङ्क भाग में जो स्थान हैं उन्हें भवन कहते हैं, तथा ऊर्ध्वलोक में अर्थात् पृथ्वीतल से ऊपरी भामों में पर्वतों के अग्नभामों पर, कूटों पग, वृक्षों के अग्नभागों पर, और पर्वतस्थ सरोवरों यादि में जो स्थान हैं उन्हें प्रावास कहते हैं । ये तीनों प्रकार के निवास स्थान हानि-क्षय से रहित अर्थात् शाश्वत हैं ।। ७३-७४ ।। उत्कृष्टपुर वृत्ताकार और एक लान योजन विस्तार वाले हैं तथा जघन्य पुर एक योजन विस्तार वाले हैं ।।७५।। समस्त उत्कृष्ट भवनों का उत्कृष्ट विस्तार १२२०० योजन प्रमाण है ।१७६॥ अधोलोक स्थित जघन्य भवनों का जघन्य विस्तार २५ योजन प्रमाण है ।७७। जिनागम में जिनेन्द्र भगवान के द्वारा सम्पूर्ण उत्कृष्ट प्रावासों का विष्कम्भ १२००० योजन कहा गया है, तथा जघन्य प्रावासों का व्यास तीन कोस कहा गया है। उत्कृष्ट भवन मादि के मध्य में देदीप्यमान कूट हैं, जो ३०० योजन चौड़े और १०० योजन ऊँचे हैं। जघन्य भवनों आदि के मध्य में जघन्य कूट हैं, जो स्वर्ण और रत्नमय हैं, शाश्वत हैं तथा एक कोस चौड़े और कोस ऊँचे हैं ॥७८-१||
___ अब कूटों का अवशेष वर्णन करते हए क्यन्तर देवों के निवास (प्रावासों प्रावि का) स्थानों का विभाग दर्शाते हैं :--
प्रमोषां सर्वकूटानां मध्यमागे च मूर्धनि । स्फुरव्रत्ममयस्तुङ्ग एकंकः श्रीजिनालयः ।।२।। ज्येष्ठानां भवनाधीनामुत्कृष्टा वेक्षिका मता। प्रतोलीतोरणाचा घा कोशद्वयोच्छितोजिता ॥३॥ लधूनां भवनादीनां लध्वी सद्वेदिका भवेत् । . पचविशतिचापोच्चा गोपुरादिविभूषिता ॥४॥