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सिद्धान्तसार दोपक
क्रोशायाम युताः क्रोशचतुर्थभागविस्तृताः। सुभूषणा जिनेन्द्राणां विद्यन्ते तास सञ्चिताः ॥१४॥ भरतराबतोस्पन्नानां सरत्नमयाः परे। निपल्या नावासानकल्पपोः ॥१५॥ पूर्वापरविवेहोत्थाहता विभूषणा इति ।
समस्कुमारमाहेन्द्रयोः सन्ति रत्नशालिनः ॥१८६।। अर्थः-उस सभामण्डप के प्रागे रत्नमयी पीठ पर मान को हरण करने वाला, ३६ योजन ( २८८ मील ) ऊँवा. एक योजन ( ८ मोल ) चौड़ा, वज्रमयी देदोप्यमान कान्ति वाली महायजा से विभूषित, शिखर ( मस्तक ) पर जिन बिम्बों से युक्त एवं अपनी किरणों से दशों दिशाओं को प्रकाशित करने वाला एक मानस्तम्भ है ।।१८०-१८१।। इसमें क्रमशः एक एक कोश विस्तार वाली सूर्य सहश प्रकाशमान बारह धाराएं हैं । इन ३६ योजन ऊंचाई वाले मानस्तम्भों के अधोभाग में पौने छह योजन और उपरिम भाग में सवा छह योजन छोड़ कर शेष मध्य भाग में रत्नमयी रस्सियों के सहारे लटकते हुए मणिमय करण्ड (पिटारे ) हैं ॥१८२-१८३॥ इन पिटारों की लम्बाई एफ कोश एवं चौड़ाई पाय कोश प्रमाण है। इन करण्डों में जिनेन्द्रदेवों ( सोएंकरों के पहिनने योग्य अनेक प्रकार के प्राभरण आदि संचित रहते हैं ॥१८४|| भरत क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकरों के उत्तम रत्नमयी एवं उपमा रहित आभूषण सौधर्म स्वर्गस्थ मानस्तम्भ पर, ऐरावत क्षेत्रोत्पन्न तीर्थकरों के, ऐशान स्वर्गस्थ मानस्तम्भों पर, पूर्व विदेह क्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरों के सानत्कुमार स्वर्गस्य मानस्तम्भ पर एवं पश्चिम विदेह क्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरों के रत्नमयी प्राभूषण माहेन्द्र स्वर्गस्थ मानस्तम्भों पर स्थित मञ्जूषानों में अवस्थित रहते हैं ॥१८५-१८६॥ जिसका चित्रण निम्न प्रकार है।
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