Book Title: Siddhantasara Dipak
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

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Page 660
________________ ६१४ } सिद्धान्तसार दोपक अब प्राचार्य पुनः मंगल याचना करते हैं: - तीर्थेशाः सिद्धनाथास्त्रिभुवनमहिताः साधवो विश्ववन्द्याः सद्धर्मास्तत्प्रणेतार इह सुशरणाविश्वलोकोत्तमाश्च । दातारो भुक्तिमुक्ती दुरितचयहराः सर्व माङ्गल्यबा ये । ते मे वो वा प्रवद्युनि सकलगुणान् मङ्गलं पापहन्तीन् ॥ ११७ ॥ प्रर्थः - स्वर्ग - मोक्ष प्रदान करने वाले, दुष्कमों के समूह को हरण करने वाले तथा सर्व मंगलों को देने वाले, त्रैलोक्य पूज्य एवं विश्व वन्य अर्हन्त परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी सर्व साधु परमेष्ठी एवं केवली प्रणीत सद्धर्म हो लोक मेंउत्तम मंगल हैं, उत्तमोत्तम हैं और परमोत्कृष्ट शरणभूत हैं, श्रतः ये सभी मुझे, आपको एवं सभी को पाप नाशक अपने अपने सभी गुण प्रदान करें ।। ११७ || प्राचार्य इस सिद्धान्त ग्रन्थ के वृद्धि की वाञ्छा करते हैं: एतत्सिद्धान्ततीर्थं जिनदरमुखजं धारितं श्रीगणेशवन्द्यं मान्यं साच्यं त्रिभुवनपतिभिर्दोषदूरं पवित्रम् । अज्ञानध्वान्तहन्तृ प्रवरमिह परं धर्ममूलं सुनेत्रम् विश्वालोके च भव्यैरसमगुणगणैर्यात वृद्धि शिवाय ॥ ११६ ॥ JM अर्थ: यह सिद्धान्त रूपी तीर्थ भगवान् जिनेन्द्र के मुख से निर्झरित है, गणधर देवों द्वारा धारण किया गया है, देवेन्द्र, नागेन्द्र, खगेन्द्र और चक्रवर्ती श्रादि त्रैलोक्य के अधिपतियों द्वारा वन्द्यनीय, आदरणीय एवं सदा पूज्य है । दोषों से दूर, पवित्र, अज्ञान रूपी अन्धकार के नाश में प्रवीण, धर्म का मूल और उत्तम नेत्र है, अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए भव्यों के अनुपम गुण समूहों द्वारा यह सम्पूर्ण लोक में निरन्तर वृद्धिंगत होता रहे ॥ ११८ ॥ ग्रन्थेऽस्मिन् पञ्चचत्वारिंशच्छत श्लोक पिण्डिताः । षोडशाग्रा बुधैर्ज्ञेयाः सिद्धान्तसारशालिनि ॥ ११६ ॥ ॥ इति श्री सिद्धान्तसार दीपक महाग्रन्थे भट्टारक श्री सकलकीतिविरचिते पत्यादिमानव नो नाम षोडशोऽविकारः ॥ ॥ इति श्री सिद्धान्तसार दीपकनामाग्रन्थः समाप्तः ॥

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