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षोडशोऽधिका
जो विद्वज्जन शास्त्र का अध्ययन कराते हैं, उनका फल दर्शाते हैं:
ये पाठयन्ति सुविदो वरसंयतादीत् faraiदोकमिमं परमागमं ते ।
सज्ज्ञानदानजमहानघपुण्यपाकाज् ज्ञातश्रुता जगति केवलिनो भवन्ति ||११४||
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श्रर्थः -- जो विद्वज्जन मुनि, आर्यिका श्रावक एवं श्राविका जनों को सम्पूर्ण अर्थ के प्रकाशन में दीपक सदा इस शास्त्र का अध्ययन कराते हैं अर्थात् पढ़ाते हैं, वे उत्तम ज्ञान दान के फल से उत्पन्न अत्यन्त शुभ पुण्योदय से संसार में सर्व श्रुत के ज्ञाता होकर पश्चात् केवली हो जाते हैं ।॥ ११४॥
इस महान ग्रन्थ की रचना करके श्राचार्य श्री क्या चाहते हैं ? उसका दिग्दर्शन कराते हैं:
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एतज्जैनवरागमं सुरचितं लोकत्रयोद्दीपकस्
तद् रागेण मया सुशास्त्ररचना व्याजेन मोक्षाप्तये । हत्वाज्ञानतमो मदीयमखिलं सद्वर्तमानागमम् सर्व मेत्र ततोप्यमुत्र विधिना दद्याच्छु तं केवलम् ॥ ११५ ॥ अस्मिन् ग्रन्थवरे त्रिकालविषये ये वरिताः श्रीजिना
प्रन्थादौ च नुताः समस्त जिनपाः सिद्धाश्च ये साधवः । सते येँ कृपया ममाशुविमलं सम्पूर्ण रत्नत्रयम्
सर्वान् स्वांश्च गुणान् समाधिमरणं दद्युः स्वशत्रोर्जयम् ॥ ११६॥
श्रर्थः - यह लोक्य दीपक सहश श्रेष्ठ जिनागम, जन कल्याण के राग से मेरे द्वारा शास्त्र की रचना के बहाने मोक्ष प्राप्ति के लिए रचा गया है, इसलिए विद्यमान यह सर्व समीचीन जिनागम मेरे सम्पूर्ण ज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर विधिपूर्वक इस लोक में श्रुतज्ञान को और परलोक में केवलज्ञान देवें ।।११५।। इस उत्तम ग्रन्थ में जिन जिनेन्द्रों ने तीन लोक का वर्णन किया है तथा ग्रन्थ के प्रारम्भ में जिन श्रन्तों, सिद्धों एवं साधुयों को नमस्कार किया है, ये सब कृपा करके मुझे शीघ्र ही निर्मल एवं सम्पूर्ण रत्नत्रय अपने अपने सर्व गुण. समाधिमरण और स्वरात्रों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति देवें ॥ ११६ ॥