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शोधिकाः
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अथं से भरा हुआ एवं सार्थक नाम को धारण करने वाला यह सिद्धान्तसार दीपक नामका ग्रन्थ अपने संघों द्वारा पृथिवी पर जयवन्त हो ।। १०६ ॥
इस ग्रन्थ के पठन से किन किन फलों की प्राप्ति होगी ? उसे कहते हैं:
ये पठन्ति वरशास्त्रमिदं सद्धोधनाः सुमुनयो गुणरागात् । ज्ञाननेत्रमचिरादिह लब्धा लोकयन्ति जगतां त्रितयं ते ।।१०७॥ तेन हस्ततलसंस्थित रेखावद् विलोक्य नरकादि समस्तम् । यान्ति भीतिमशुभाच्च चरन्ति सपश्चरणम.१०
सेन वृत्तविशवा चरणन प्राप्य नाकमसमं सुखखानि । राज्यभूतिमनुभोगविरक्त्या सत्तपश्चरणतोऽवपुषः स्युः ॥१०६ ॥
अर्थ :- जो समीचीन बुद्धि के धारक उत्तम मुनिराज गुरगानुराग से इस ग्रन्थ को पढ़ते हैं, वे शीघ्र ही ज्ञान रूपी अनुपम नेत्र ( केवलज्ञान ) को प्राप्त कर तोन लोक स्वरूप समस्त जगत को देख लेते हैं ।। १०७ ।। वे विद्वान् उस अनुपम ज्ञान से नरकादि समस्त दुःख मय पदार्थों को हस्ततल पर स्थित रेखा के सदृश देखकर समस्त प्रशुभादि क्रियाओं से भयभीत होते हैं, और समीचीन तपश्चरण आदि का श्राचरण करते हैं || १०८|| तथा उस निर्दोष चारित्र के प्राचरण से सुख को खानि स्वरूप स्वर्गी के अनुपम सुखों को प्राप्तकर मनुष्य पर्याय में आकर राज्य विभूति का अनुभोग करके वंराग्य को प्रातं होकर उत्तम तपश्चरण करते हुए सिद्ध पर्याय को प्राप्त करते हैं ॥१०६॥
शास्त्र अत्रण करने से क्या फल प्राप्त होता है ? उसे कहते हैं:
तिये बुधजनाः परया त्रिशुद्धया
तत्तं त्रिभुवनोरुगृह प्रदीपम् ।
ते श्वदुःखकलनादधमीतचित्ता
धर्मे तपःसुचरणे च परायणाः स्युः ।।११० ।।
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ते ज्ञानहम्मतपश्चरणाविधमें
tear gi freri विवि मर्त्यलोके । सम्प्राप्य रागविरति भवभोगकाये सद्दीक्षया सुतपसा च भवन्ति सिद्धाः ॥ १११ ॥