Book Title: Siddhantasara Dipak
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

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Page 629
________________ पंचदशोऽधिकारा [ ५३. ततः परं प्रगच्छन्ति स्वोत्कृष्टमत्तपोयम।। सर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं मुनयो भावलिङ्गिनः ।।३७६।। अर्थ:-भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले सभ्यग्दृष्टि प्रार्य मरण कर सम्यग्दर्शन एवं धर्म के प्रसाद से सौधर्मशान कल्प पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ।।३६८|| तथा भोगभूमि में उत्पन्न एवं भोगों की आकांक्षा रखने वाले मिष्टि मनुष्य, भवनवासी, ब्यन्तरवासो और ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होते है ॥३६६॥ अज्ञान से अनेक प्रकार के कष्ट जिसमें हैं ऐसा तप तपने वाले भद्र तापसी मरण कर भवनत्रिक में उत्पन्न होते हैं । अल्प पुण्य के कारण स्वर्ग नहीं जाते ॥३७०॥ जो परिव्राजक हैं, वे अपने उत्कृष्ट तपश्चरण द्वारा भवन त्रिक से बोत्तर स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ||३७१।। भद्र, दीर्घायु और कुवेषधारी आजीवक नाम का तासा काय क्लेश आदि तपों के द्वारा उत्कृष्ट से सहस्रार स्वर्ग यंन्त जाते हैं ।। ३७२।। सहस्रार स्वर्ग से ऊपर कुलिं गवेषवारी जोवों की उत्पत्ति नहीं होती। अपने अपने उत्कृष्ट चारित्र में उद्यम करने वाले श्रावक, आमिकाएँ यती स्त्रियाँ और व्रत से विभूषित तिर्यञ्च उत्कृष्ट नायक व्रतों के द्वारा उत्कृष्टतः स लहै स्वर्ग पर्यन्त जाते हैं ॥३७३-३७४।। दीर्घायु द्रव्य लिङ्गी मुनि प्रौर अभव्य जीव उत्कृष्ट रीति से पालन किये हुए तप और व्रताचरण के द्वारा नवअवयक पर्यन्त जाते हैं 1|३७५।। सर्वोत्कृष्ट व्रत और तपश्चरण के द्वारा भावलिङ्गी मुनिराज सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जाते हैं ॥३७६।। प्रम स्वगो से च्युत होने वाले देवों को प्राप्त गति का निर्धारण करते हैं: सौधर्मेन्द्रस्य दृष्टयाप्ता महादेव्यो दिवच्युताः । सर्वे च दक्षिोन्द्रा हि चत्वारो लोकपालकाः ॥३७७॥ सर्वे लौकालिका विश्वे सर्वार्थसिद्धि जामराः । निर्माण हपता यान्ति संप्राप्य नुभवं शुभम् ।।३७८।। नवानुत्तरजा देवाः पञ्चानुत्तरवासिनः । ततश्च्युत्वा न जायन्ते वासुदेवा न तद् द्विषः ॥३७६ ।। तिर्यञ्चो मानवाः सर्वे भावनादि निजामराः । शलाकापुरुषा जातु न भवन्त्यमराचिताः ॥३०॥ विजयादिविनानेभ्योऽहमिन्द्रा एत्य भूतलम् । मयंजन्मस्यं प्राप्य ध्रुवं गच्छन्ति नि तिम् ॥३८१॥

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