Book Title: Siddhantasara Dipak
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

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Page 633
________________ पंचदशोऽधिकार। [ ५७ अब धर्म के फल का प्रतिपादन करते हुए प्राचार्य व्रत तप प्रावि धारण करने को प्रेरणा देते हैं:-- इत्थं धर्मविपाकतश्च विबुधाः स्वर्गेषु नानाविध । सस्सौख्यं चिरकालमक्षजमहो! भुजति बाधातिगम् । ज्ञावेतीह बुधाः प्रयत्नमनसा सारस्तपः सवत धमकं चरतानिशं किमपरैर्व्यर्थश्चधारडम्वरैः ।।४०१॥ अर्थः-ग्रहो ! इस प्रकार विवेकी जीव धर्म के फल से स्वर्गों में चिरकाल तक नाना प्रकार के वाधा रहित इन्द्रिय जन्य उत्तम सुख भोगते है । ऐसा जान कर विद्वान को, मनुष्य भ र भूत उत्तम तप और उत्तम व्रतों के द्वारा निरन्तर मनोयोग पूर्वक एक धर्म के आचरण में ही प्रयत्न करना चाहिये, व्यर्थ क अन्य वचन आडम्बरों से क्या ? ॥४.१॥ धर्म को महिमा:-- धर्मः स्वर्गगृहाङ्गणः सुखनिधिर्धर्मः शिवश्रीप्रदो। धर्मस्वेष्टसमोहितार्थजनको धर्मोगुणाब्धिर्महान् ।। धर्मो धर्मविधायिनां द्विसुगतौ नाना सुभोगप्रव स्ततिक यन्न वक्षाति किं तु कुरुते स्वस्यास्त्रिलोकोपतोर ॥४०२॥ अर्थः-धर्म से स्वर्ग लोक गृह का प्रांगन हो जाता है, धर्म सुख की निधि और मोक्ष लक्ष्मी को देने वाला है, धर्म अपने इष्ट एवं चिन्तित पदार्थों का जनक है धर्म गुणों का सागर है, धर्म धारण करने वाले जीवों को धर्म उत्तम भोग प्रदायी स्वर्ग और मनुष्य गति देता है, धर्म केवल इतना ही नहीं देता किन्तु अष्ट कर्मों को नष्ट करके धर्म त्रैलोक्य पति पद प्रर्थात् मोक्ष पद को भी दे देता है ।।४०२॥ अधिकारान्त मङ्गलाचरण:---- धर्म येऽत्र सृजन्ति तीर्थपतयो धर्माच्छिवं ये गताः। धर्मे ये गणिनो विवरच मुनयस्तिष्ठन्ति धर्माप्तये ॥ ये स्वर्गाविजगत्सत्यनिलया धर्मस्य स तवः तीर्थेशप्रतिमादयः प्रतिदिनं यन्वेऽखिलास्तान स्तुवे ॥४०३।।

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