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षोडशोऽधिकार।
[६०३ रज्म को ७ से गुणित करने पर जगच्छ्रणी होती है। जगच्छणी को अन्य जगच्छणी से गुणित करने पर जगत् प्रतर और जगत्प्रतर को जगच्छणी से गुणित करने पर रोक का प्रमाण होता है।
अब अणु का लक्षण कह कर अंगुल पर्यन्त मापों का प्रमाण कहते हैं:--
स प्रदेशोऽप्यमेधस्तु मूतनिन्द्रियगोचरः । स्पर्शादिगुणसंयुक्तः पुद्गलाणुरिहोच्यते ॥५५॥ उत्संज्ञासंज्ञकस्कन्धोऽनन्तानन्ताणुभिर्भवेत् । संहासंज्ञात्मकस्कन्धोऽष्टभिस्तैः कोतितो जिनः ।।५६॥ स्कन्धेस्तरष्टभिः प्रोक्तो व्यवहाराणुरागमे । अष्टभिर्यवहाराणुभिस्त्रमरेणुरुच्यते । ५७॥ रथरेणुरिहाख्यातोऽप्यष्टभिस्त्रसरेणुभिः । रथरेण्यष्टभिः प्रोक्तो बालक: प्रायवेहिनाम् ॥१८॥ उत्कृष्टभोगभूजातानां तैरष्टशिरोरुहैः । केशको मध्यमाभोगभूमिभवार्यजन्मिनाम् ॥५६॥ एतै लाष्टभिः ख्यातो बालकः पिण्डितर्बुधैः । जघन्यभोगमभागोत्पन्नार्याणां शिरोरुहः ।।६।। तेरष्टभिश्च बालकः कर्मभूमिजदेहिनाम् । कर्मभूमिनुबालाष्टकैलिका निगद्यते ॥६१।। लिक्षाष्टभिस्तुयू कैका यूकोष्टभिर्यवो मतः । यवोवराष्टकः प्रोक्तं पर्वमानं गणाधिपः ॥६॥
अर्थः-जो पुद्गल द्रव्य एक प्रदेशी हो, मूर्तिक हो, इन्द्रियों से अग्राह्य हो तथा स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण से युक्त हो उसे पुद्गल प्रणु कहते हैं ।।५५।। ऐसे अनन्तानन्त पुद्गल परमाणुओं से एक उत्संज्ञासंज्ञक स्कन्ध उत्पन्न होता है । जिनेन्द्र भगवान ने पाठ उत्संज्ञासंज्ञकों का एक संज्ञासंज्ञास्मक स्कन्ध कहा है ।।५६।। प्रागम में माठ संज्ञासज्ञात्मक स्कन्ध का एक व्यवहाराणु (टिरेणु) और पाठ श्रुटिरेणुओं का एक त्रसरेणु कहा गया है ।।५७।। आठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु, पौर पाठ रथरेणुनों का उत्तम भोगभूमिज मनुष्यों का एक बाल होता है ॥५८॥ उत्कृष्ट भोगभूमिज