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सिद्धान्तसार दीपक ( ४५ लास योजन ) विस्तार बाली है । इस शिला को मध्य की मोटाई पाठ योजन है आगे अन्न पर्यन्त क्रमश: हीन होती गई है ।।४-५।।
अब सिद्ध भगवान का स्वरूप कहते हैं:
तस्यां सिया जगद्वन्यास्तनुवातान्तमस्तकाः । मनन्तमस्त्रसलीना नित्यान्टगुणमूषिताः ।।६।। कायोत्सर्गममाः केचित् पर्यङ्कासन सनिभाः । केचिच्च विविधाकारा अमूर्ता ज्ञानदेहिनः ।।७।। गतसिक्स्थकमूषायां प्राकाशाकारधारिणः । प्राक्कायायामविस्तार विभागोनप्रदेशकाः ।।।। लोकोत्तमाः शरण्याश्च मजलविश्वकारकाः । अनन्तकालमात्माप्तास्तिष्ठन्त्यन्तातिगाः सदा ॥६॥ इमे सिद्धा मया ध्येया बन्या विश्वमुनीश्वरः । स्तुताश्च मम कुर्वन्तु स्वगति स्वगुणैः समम ॥१०॥
अर्थः-तनुवातवलय के अन्त में हैं मस्तक जिनके ऐसे त्रिजगद्वन्दनीय, अनन्त सुख में निमग्न पौर नित्य ही अष्ट गुणों से विभूषित सिद्ध परमेष्ठी उस सिद्ध शिला से ऊपर अवस्थित हैं ॥६।। मान हो है शरीर जिनका ऐसे वे अमूर्तिक सिद्ध कोई कायोत्सर्ग से और कोई पद्मासन से नाना प्रकार के भाकारों से प्रदस्थित हैं ।।७।। पुरुषाकार मोम रहित सांचे में जिस प्रकार आकाश पुरुषाकार को धारण करके रहता है, उसी प्रकार पूर्व शरीर के आयाम एवं विस्तार में से एक त्रिभाग कम पुरुषाकार प्रदेशों से युक्त, लोकोत्तम स्वरूप, शरण स्वरूप और समस्त विश्व को मंगल स्वरूप सिद्ध भगवान् अन्तरहित अनन्तकाल पर्यन्त अपनी प्रात्मा में ही रहते हैं ||-६॥ इस प्रकार के सिद्ध भगवान् विश्व के समस्त परहंतों और मुनीश्वरों के द्वारा वन्द्य तथा स्तुत्य हैं, मैं भी उनका ध्यान करता हूँ. वे मुझे अपने गुणों के सदृश अपनी सिद्ध गति प्रदान करें ।।१०।।
भब सिद्धों के सुखों का वर्णन करते हैं
इन्द्राहमिन्द्रदेवानां चक्रवादिभूभुजाम् । भोगभूमिभवार्याणां सर्वेषां व्योमगामिनाम् ।।११॥