Book Title: Siddhantasara Dipak
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

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Page 637
________________ पोशाधिकार [ ५६१ भूतं भावि सुखं सर्व वर्तमानं जगत्त्रये । यदेकत्रीकृतं स्याच्च विषयोत्थत्रिकालजम् ।।१२।। तस्मादक्षसखात्कृत्स्नादनन्तगुणितं सुखम् । एकेन समयेनैव सिद्धा भुञ्जन्ति शाश्वतम् ॥१३॥ स्वात्मोपावानसजातं वृद्धिह्रासोज्झितं परम् । परद्रव्य मिरपेक्ष समस्तोत्कृष्टमञ्जसा ।।१४।। निगबाघ निरौपम्यं दुःखदूरं सुखोद्भवम् । प्रत्यक्षमतुलं सारं विश्वशर्माप्रसंस्थितम् ।।१५।। अर्थ:-तीनों लोकों में चतुनिकाय के सर्व देवों, इन्द्रों, अहमिन्द्रों, पदवीधारी चक्रवर्ती प्रादि सर्व राजानों, भोगभूमिज युगलों और सर्व विद्याधरों के भूत, भविष्यत, वर्तमान के सर्व सुख को एकत्र कर लेने पर भी त्रिकालज विषयों से उत्पन्न होने वाले इस इन्द्रिय जन्य समस्त सुखों से (विभिन्न जाति का) अनन्तानन्त गुणा शाश्वत एवं प्रतीन्द्रिय सुख सिद्ध परमेष्ठी एक समय में भोगते हैं ॥११-१३॥ लोक के प्रम भाग में स्थित सिद्ध परमेष्ठी अपनो नात्मा के उपादान से उत्पन्न, वृद्धि ह्रास से रहित, पर द्रव्यों से निरपेक्ष, सर्व सुखों में सर्वोत्कृष्ट, बाधा रहित, उपमा रहित, दुःख रहित, अतीन्द्रिय, अनुपम सुख से उत्पन्न और समस्त सुखों में जो सारभूत है, ऐसे सुख का उपभोग निरन्तर करते हैं ॥१४-१५।। अब अधोलोक जन्य प्रत्येक भूमियों का भिन्न भिन्न घम फल कहते हैं:-- अथ पूर्वोक्तलोकस्य घनाकारेण रज्जुभिः । अधोमध्यो_भागेषु पृथक संख्या निगद्यते ॥१६॥ रत्नप्रभामहीभागे रज्जवो दशसम्मिताः । शर्कराश्वभ्रभूदेशे रज्जयः षोडशप्रमाः॥१७॥ वालुका भूतलेद्वाविंशति संख्याश्च रज्जबः । पडूप्रभावनिक्षेत्रे हृष्टाविंशति रज्जयः॥१८॥ धूमप्रमाक्षितौ रज्जव: चस्त्रिशवजसा । नमःप्रभाखिलेक्षेत्र चत्वारिंशच्च रज्जयः ॥१९॥

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