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सिद्धांतसार दोपक
श्रतोऽद्याभुत पुण्येन नृभयं प्राप्य सत्कुलम् । सांधनीयं किलास्माभिर्मोक्षोऽनन्तसुखाकरः ॥ ३६५॥ इत्थं विचार्य सहदेवा विधाय विविधाचंनाम् । प्रर्हतां मरणान्ते च चित्तं कृत्वाति निश्चलम् ॥ ३६६॥ व्यायन्तः कुड्मलीकृत्य स्वकरौ परमेष्ठिनाम् । नमस्कारान् परान् पञ्चेहामुत्र स्वेष्टसिद्धिवान् ।।३६७।। तिष्ठन्ति पुण्यसत् क्षेत्रे तदामीषां वपूंषि च । प्रभ्राणीव विलीयन्ते सहसा स्वायुषि क्षये ॥ ३६८ ॥ ततस्ते दृग्विशुद्धघाप्ता देवास्तत्पुण्यपाकतः । तीर्थेशविभवं केचिल्लभन्ते विश्ववन्दितम् ॥ ३९९ ॥
केचिच्चक्रिपदं चान्ये बल- कामादिसत्पदम् I नृभवे सुकुलं केचिद्धनाढ्य धर्मकारणम् ||४०० ॥
अर्थ :-- हिताहित के विचार में दक्ष सम्यग्दृष्टि उत्तम देव मानसिक कलुषता को दूर करने के लिए इस प्रकार विचार करते हैं कि ग्रहो ! यहाँ स्वर्गो में इन्द्रों के भी न किञ्चित यम, नियम हैं और न तप है और न दान आदि हैं, और तप श्रादि के बिना मोक्ष रूप शाश्वत सुख की प्राप्ति हो नहीं सकती, किन्तु मनुष्य भव में मनुष्यों को मोक्ष के साधन भूत तप, रत्नत्रय, व्रत एवं शील भादि सभी प्राप्त हो जाते हैं, अतः आज अद्भुत पुग्यपरिक से हम लोगों को मनुष्य भव और उत्तम कुल को प्राप्ति हो रही है, उसे प्राप्त कर हम लोग प्रनन्त सुख की खान स्वरूप मोक्ष का साधन करेंगे ।।३१२ - ३६५ ।। इस प्रकार के विचार कर उत्तम देव नाना प्रकार से अर्हन्त देव की पूजन करके मरण के अन्तिम समय में अपने चित्त को श्रत्यन्त निश्चल करते हुए अपने दोनों हाथ जोड़ कर पंच परमेष्ठियों का ध्यान करते हैं तथा इस लोक और परलोक में श्रात्म सिद्धि देने वाला नमस्कार करते हैं ।। ३६६-३६७ ।। मरण वेला में किसी पुण्य रूप उत्तम क्षेत्र में जाकर बैठ जाते हैं, वहां प्रयुक्षय होते ही उन देवों का शरीर मेघों सहरा शीघ्र ही विलीन हो जाता है || ३६८ || शुद्ध सम्यक्त्व को धारण करने वाले वे उत्तम देव वहां से चय कर कोई तो पुण्य प्रभाव से विश्ववन्दनीय तीर्थंकर के वैभव को प्राप्त करते हैं, कोई चक्रवर्ती पद को कोई बलदेव पद और कोई कामदेव आदि के उत्तम पद प्राप्त करते हैं, एवं कोई कोई देव मनुष्य भव तथा उत्तम कुल में धर्म के कारणभूत अति धनाढ्य होते हैं ।। ३६६ -४०० ॥