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पंचदशोऽधिकारः
पञ्चेन्द्रियाश्व पर्याप्तास्तिर्यञ्चो या मरोऽपरे । ततः परं दिवश्च्युत्वानतकल्पादिवासिनः ॥ ३६० ॥ कर्मभूमौ मनुष्यत्वं लभन्ते केवलं शुभम् । तिर्यक्त्वं तु नामीयां तीव्रार्त्ताघाद्यभावतः ||३१|
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श्रर्थः :- जब सर्व देवों की छह मास पर्यन्त की अल्पायु श्रवशेष रह जाती है, तब उनके शरीर की कान्ति मन्द हो जाती है । दुर्विपाक से गले में स्थित उत्तम पुष्पों की माला म्लान हो जाती है और मणिमय श्राभूषणों का तेज मन्द हो जाता है ।।३८२-३८३ ।। इस प्रकार के मृत्यु चिह्न देख कर मिथ्यादृष्टि देव अपने मन में इष्ट वियोग श्रार्त्तध्यान रूप इस प्रकार का शोक करते हैं कि - हाय ! संसार की सारभूत स्वर्ग की इस प्रकार की सम्पत्ति छोड़ कर अब हमारा अवतरण स्त्री के अशुभ, निन्द्यनीय और कुत्सित गर्भ में होगा ? ।। ३६४-३६२॥ अहो ! विष्टा और कृमि श्रादि से व्याप्त उस गर्भ में दीर्घ काल तक अधोमुख पड़े रहने की वह दुस्सह वेदना हमारे द्वारा कैसे सहन की जायगी ? ।। ३८६ ।। इस प्रकार के श्रात्तंध्यान रूप पाप से भवनत्रिक और सौधर्मेशान कल्प में स्थित मिष्याष्टि देव स्वर्ग से युत होकर तिर्यग्लोक में दुःखों से पर्यात वृषिलोकायिक, जलकायिक, और प्रत्येक वनस्पति कायिक जीवों में जन्म लेते हैं ( जहां गर्भ का दुःख नहीं होता) ।।३६७-३८८ सहस्रार कल्प पर्यन्त के मिथ्यादृष्टि देव स्वर्ग से च्युत होकर प्रातध्यान के कारण पन्द्रह कर्मभूमियों में, दुःखों से युक्त पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक तिर्यञ्च एवं मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । प्रान्त आदि चार कल्पों के एवं नवप्रवेयकों के मिध्यादृष्टि देव स्वर्गं से च्युत होकर कर्मभूमियों में उत्तम मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । इन स्वर्गो में तीव्र आर्त्तध्यान का प्रभाव है, अत: यहां के मिथ्याराष्ट देव तिर्यञ्च योनि में कभी भी उत्पन्न नहीं होते ।। ३८६-३६१।।
अब मरणचिह्नों को देख कर सम्यग्दृष्ठि देव क्या चिन्तन करते हैं, और उसका उन्हें क्या फल मिलता है ? इसे कहते हैं:
मृत्युचिन्हानि बीयान् सम्यग्दृष्टिसुरोत्तमाः । वक्षाः कालुष्यनाशायेमं विचारं प्रकुर्वते ॥३६२॥ शाणामपि चात्राहो न मनाग्नियमं व्रतस् । न तपो न च सद्दानं न शिवं शाश्वतं सुखम् ॥ ३९३॥ किन्तु मत्यभयेन्रीणां तपोरत्नत्रयादयः । व्रतशीलानि सर्वाणि जायन्ते च शिवादिकाः ॥१३६४ ।।