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सिद्धान्तसार दोपक रखते हैं, धर्म कार्यों में निरन्तर सहायता करते रहते हैं और अन्य जीवों को भी धर्म कार्यों की प्रेरणा देते रहते हैं ।।३६१-३६२।। जो मनुष्य निरन्तर धर्मकार्य में उद्यत रहते हैं और पाप कार्यों से पराङ्मुख हैं, संसार से भयभीत, शुभ ध्यानों में तत्पर, जितेन्द्रिय, विषय कषायों को जीतने वाले, गर्व रहित, अहंकार रहित, ज्ञानी, मन्दकषायो, निलोभी, शुभलेश्याओं से युक्त और सद् विचारों में चतुर होते हैं ॥३६३-३६४॥ धर्म शुक्ल रूप उस्कृष्ट शुभ ध्यानों में तत्पर, खोटें ध्यानों से दूर रहते हैं, धर्म कायों में अग्रसर एव सर्वत्र सर्व जीवों के हित में उद्यत रहते हैं । इत्यादि प्रकार से तथा और भी अन्य शुभाचारों से जो मनुष्य विभूषित हैं, वे सब नरोत्तम समाधिपूर्वक प्राणों को छोड़कर धर्म के फल से सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थ सिद्धि पर्यन्त जाते हैं तथा अपने अपने तप को योग्यता के बल से इन्द्रादि के उत्कृष्ट पदों को प्राप्त करते हैं ।।३६५-३६७॥
अब कौन कौन से जीव किन किन स्वर्गों तक उत्पन्न होते हैं, इसका विवेचन करते हैं:
भोगभूमिभषा प्रायः सम्यक्त्वषारिणो हि ये । सौधर्मेशानकल्यौ ते यान्ति दृष्टिवृषोदयात् ॥३६८।। भोगभूमिसमुत्पन्ना ये दृष्टिविकला नराः । भाषनावित्रये तेऽतः व्रजन्ति भोगकांक्षिणः ॥३६६।। अज्ञानकष्टपाकेम भद्रा गच्छन्ति तापसाः। प्रायोतिर्लोक पर्यन्तं न स्वर्ग स्वन्पपुण्यतः ।।३७०।। ये परिवाजकास्तेऽत्र स्वोत्कृष्टाचरणेन च । यान्ति ब्रह्मोत्तरं स्वर्ग यावद् भौमादिपूर्वकम् ॥३७१।। भद्रा प्राजीवका दीर्घायुषः कुवेषधारिणः । उत्कृष्टेन सहस्त्रारपर्यन्तं यान्ति तद् प्रतः ।।३७२॥ इतः परं भवेज्जातु गमनं नान्यलिङ्गिनाम् । आयका प्रायिका नार्यस्सियंञ्चो व्रतमूषिताः ॥३७३।। उत्कृष्टेन च गच्छन्ति स्वोत्कृष्टाचरणोचताः । अच्युतस्वर्गपर्यन्तमुस्कृष्टधायकवतः॥३७४।। उत्कृष्टेन सपोवृत्तरभव्या च्यलिङ्गिनः । घिरायुषो वजन्त्यूवं यावदप्रै वेयकान्तिमम् ॥३७५।।