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पंचदशोऽधिकारः
[ ५५३ विमान शुद्ध हैं, जिनमें (उत्तर कल्पों की ) मात्र देवांगनाओं का जन्म होता है, इन (दश लाख) विमानों में देवों की उत्पत्ति नहीं होती ।।१९०-१६१॥ उत्पत्ति के तुरन्त बाद ही सनत्कुमार कल्प से अभ्युत कल्प पर्यन्त के देव अपनी अपनी नियोगिनी देवांगनाओं को अधिज्ञान से जान कर अपने अपने स्थानों पर ले जाते हैं। सौधर्मशान स्वर्गों को छोड़ कर शेष स्वर्गों में देवांगनाओं की उत्पत्ति कदापि नहीं है ॥१६२-१९३।। सौधर्म स्वर्गस्थ अवशेष ( ३२ लाख–६ लाख २६ लाख } विमानों में तथा ऐशान स्वर्गस्थ अवशेष ( २८ लाख-४ लाख-२४ लाग्न ) विमानों में शुभ कर्मोदय से युक्त देव एवं देवांगनामों-कोनों की उत्पत्ति होती है ।।१६४॥ अब कल्पवासी देवों के प्रवीचार का कथन करते हैं:--
सौधर्मेशानयोर्कोतिष्कभीमभावनेषु च । सुखं कायपवीचारं देवा देख्यो भजन्ति च ॥१६॥ सनत्कुमारमाहेन्द्रवासिवेस्त्रियां भवेत् । सुखं स्पर्शप्रवीचारमालिङ्गनाविजं महत् ।।१९।। मानहानि गर्गस्थ बहारयोषिताम् । सुखं रूपप्रवीचारं रूपाविदर्शनोद्भवम् ॥१९॥ ततः शुक्रादिकल्पेषु चतुर्षु सुरपोषिताम् । सुखं शब्दप्रवीचारं भवेद् गीतस्वराविजम् ।।१६।। मानताविचतुःस्वर्गवासिदेवो दिवौकसाम् । सुखं मनःप्रवीचारं स्यादेवी स्मरणोद्भवम् ॥१६॥ प्रहमिन्द्राः परे विश्वे प्रवीचार सुखातिगाः । कामदाहोज्झिताः सन्ति महाशर्माब्धिमध्यगाः ॥२०॥
अर्थ:-[ काम सेवन को प्रवीचार कहते हैं ] सौधर्मेशान कल्पों, ज्योतिष्कों, भवनवासियों और व्यन्तरवासियों में देव एवं देवांगनाएँ काय ( शरीर ) प्रवीचार पूर्वक सुख भोगते हैं। प्रर्थात देव अपनी देवांगनाओं के साथ मनुष्यों के सदृश काम सेवन करते हैं किन्तु उनके वीर्य स्खलन नहीं होता क्योंकि उनका शरीर सर धातुओं से रहित है ॥१६५शा सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पों के देव अपनी देवांगनामों के प्रालिंगन प्रादि से उत्पन्न होने वाले स्पर्शप्रवीचार रूप सुख का अनुभव करते हैं ||१९६u ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर और लांतव-कापिष्ठ कल्पों के देव अपनी देवांगनाओं के रूपादिक के अवलोकन से उत्पन्न होने वाले रूप प्रवीचार रूप सुख का अनुभव करते हैं ॥१६७।। शुक्र-महाशुक्र पौर शतार-सहस्त्रास