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सिद्धान्तसार दोपक करते हैं ।।२३४॥ मिथ्यात्व रूपी शत्र के नाश से तथा सम्यक्त्व प्राप्ति रूप धर्म से भवनवासी देवों की अपनी अपनी प्रायु में अर्ध सागर की वृद्धि होती है, तथा मिथ्यात्व रूपी शत्रु के विनाश एवं सम्यक्त्व मरिण के लाभ से ज्योतिष्क तथा व्यन्तर वासी देवों को प्रायु में प्रध पल्य की वृद्धि होती है ।।२३५२३६।। स्थिति आदि को जानने वाले गणधरादि देवों ने प्रागम में मिथ्यात्व रूपो विष को छोड़ने और सम्यक्त्व रूपी अमृत के पान से युक्त सर्वत्र अर्थात् बारहवें स्वर्ग पर्यन्त समस्त देवों को अपनी अपनी (धात ) प्रायु में पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण (जघन्य) वृद्धि कही है ॥२३७-२३८।। ' अब कल्पवासी देवांगनाओं की उत्कृष्ट प्राय का प्रमाण कहते हैं:--
सौधर्मे च जघन्यायुः पादानपन्यसंख्यकम् । वेवोनामायस्कृष्टं पञ्चपन्योपमानि च ।।२३६॥ ईशाने सप्तपल्यानि ज्येष्ठायुदेवयोषिताम् । सनत्कुमारकल्पे च नवपल्योपमान्यपि ॥२४०॥ माहेन्द्र योषितामायुः पत्यकादशसम्मितम् । ब्रह्मकल्पे परायुश्च पल्मोपमास्त्रयोदश ॥२४१॥ ब्रह्मोसरे स्थितिः स्त्रीणां पल्यपञ्चदशप्रमा । लान्तवे च परायष्फ पल्यं सप्तदशप्रमम् ॥२४२।। कापिष्टे जीवितं पल्योपमान्येकोनविंशतिः । शुक्र स्त्रीणां परायश्च पल्यानि ो कविंशतिः ।।२४३॥ महाशक स्थिति: पल्पश्रयोविंशतिसम्मिता । शतारे योषितामाघः पल्यानि पञ्चविंशतिः ॥२४४।। सहस्रारे स्थितिः स्त्रीया पल्यानि सप्तविंशतिः । प्रानते जीवितं पन्यचतुस्त्रिशत्प्रमं भवेद् ॥२४५।। प्राणते जीवितं पल्यैफचत्वारिंशदुत्तमम् । पारण योषिता पन्याष्टचत्वारिंशदूजितम् ॥२४६।। अच्युते पञ्चपञ्चाशत्पल्यान्यायुश्च योषिताम् ।
पुनरामा ब्रु बेऽध्यायुरन्यशास्त्रोक्तमञ्जसा ।।२४७) अर्थः-सौधर्म स्वर्ग में स्थित देवियों की जघन्य प्रायु १६ पत्य एवं उत्कृष्ट भायु पांच पल्प प्रमासा होती है ।।२३६।। ईशान स्वगस्थ देवियों की आयु सात पल्य एवं सनरकुमार कल्प स्थित