Book Title: Siddhantasara Dipak
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

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Page 622
________________ ५७६ ] सिद्धान्तसार दीपक किन्तु स्थर्गे तपो वान्यो व्रतांशो नास्ति जातुचित् । केवलं दर्शनं स्याच्च पूजाभक्तिजिनेशिनाम् ॥ ३२९॥ अतस्तस्वार्थश्रद्धास्तु श्रेयसे नो जगद्धिता धर्मात पूजाभक्तिस्तुतिः परा रुचिः ||३३० ॥ विचिन्त्येति ततः शक्रा ज्ञातधर्मफलोदयाः । धर्मसिद्धयं समुद्युक्ता व्रजन्ति स्नानवाधिकाम् ॥३३१।। अर्थ :- अन्य देवों के द्वारा सम्बोधित किये जाने के क्षण ( समय ) ही उन्हें अवधि ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, जिससे वे अपने समस्त पूर्व जन्म को जान कर धर्म का फल विचार करते हुये, इस प्रकार कहते हैं कि - अहो ! हमने पूर्व भव में महान एवं घोर तप किया। पंचेन्द्रिय रूपी चोरों को मारा है, तथा काम रूपी शत्रु को परास्त किया है ।। ३१८-३१६ ॥ शुभ ध्यान के अवलम्वन से मन को हृदय में रोक कर प्रमाद को जर्जरित किया है । एवं क्षमा रूपी श्रायुध से कषाय रूपी विष वृक्ष को किया है ।। ३२०|| जगत् में सारभूत महादीक्षा का यत्न पूर्वक पालन किया है, जिनेन्द्र भगवानों की आराधना की है और तीन लोक में सर्व श्रेष्ठ तीर्थंकरों के वचनों का श्रद्धान किया है || ३२१|| अहिंसा है लक्षण जिसका, जो सम्पूर्ण सुखों को देने वाला है ऐसे जिनेन्द्र द्वारा कथित समीचीन धर्म का मैंने पूर्ण प्रयत्न से उत्तम क्षमादि सारभूत लक्षणों द्वारा धारण किया है || ३२२|| इत्यादि प्रकार से परमोत्कृष्ट चारित्र यादि के द्वारा पूर्व भव में मैंने जो धर्म उपार्जन किया था, उसने मुझे दुर्गति के पतन से रोक कर इस देव लोक में स्थापित कर दिया है || ३२३|| इस लोक और परलोक में धर्म के बिना उत्तम हितकारी अन्य और कोई नहीं है । श्रहो ! एक समीचीन धर्म हो स्वर्ग एवं मोक्ष के सुखों को देने वाला है || ३२४|| विमियों को भी यह धर्म नरक से निकाल कर स्वर्ग ले जाता है । सज्जनों के लिए धर्म ही सहयोगी है । धर्म प्रचिन्त्य विभूति देने वाला है ।। ३२५॥ सम्पूर्ण वाञ्छित सुखों को प्रदान करने के लिए धर्म कल्पवृक्ष है, तथा सम्पूर्ण चिन्तित पदार्थों को प्रदान करने से धर्म ही चिन्तामणि रत्न है || ३२६ || जगत् में सारभूत निधि धर्म ही है । मनुष्यों के लिए धर्म ही कामधेनु है, धर्म ही अतुलगुणों का समूह है तथा सर्व ग्रंथों की सिद्धि प्रदान करने वाला एक धर्म ही है || ३२७।। श्रहो ! मनुष्य लोक में जिस उत्तम चारित्र से यह महान् धर्म उपार्जित किया था वह चारित्र सुख भोगने वाले इन स्वर्ग वासियों को कभी सुलभ नहीं है ।। ३२८ ॥ | किन्तु स्वर्गो में कदाचिद भी तप व व्रतों का अंश नहीं है, यहां तो केवल सम्यग्दर्शन और जिनेन्द्र देवों की पूजा भक्ति मात्र है || ३२६ || इसलिए स्वर्गी में कल्याण का हेतु जगत् की हितकारक एक तत्त्वार्थ की श्रद्धा एवं धर्म का मूल अर्हन्तों की पूजा, भक्ति तथा स्तुति ही है ।। ३३०|| इस प्रकार चिन्तन करके

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