Book Title: Siddhantasara Dipak
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

View full book text
Previous | Next

Page 623
________________ पंचदशोऽधिकार। [ ५७७ एवं इन्द्र प्रादि पदों को धर्म का फल जान कर धर्म सिद्धि के लिये उद्यत होते हुए स्नानवापिका की पोर स्नान हेतु जाते हैं ।।३३१॥ अब इन्द्रादि देवों के द्वारा की जाने वाली जिनेन्द्र पूजन का व्याख्यान करते हैं: तस्यां स्नात्वामरः सार्धमुत्तमं श्रीजिनालयम् । स्फुरन्मरिणमयं यान्ति धर्मरागरसोत्कटा: ।।३३२।। तत्र नत्वोत्तमा नाहन्मूर्तीधर्मसत्खनीः । प्रचंयन्ति महाभूत्या महाभक्त्या महोत्सवः ॥३३३॥ भणिभृङ्गारनालान्तनिर्गताच्छजलोत्करैः। दिव्यामोदनभोध्याप्तजगत्सारविलेपनैः ॥३३४॥ पुण्याकुरसमैर्दीर्घमुक्ताफलमयामतः । कल्पवृक्षोभः दिव्यनांनाफुसुमदाभांमः ॥३३५।। सुधापिण्डसुनंवेद्य रत्नपात्रापितः शुभैः । मणिदोपहतध्वान्तः सुगन्धिधूपसञ्चयः ।।३३६॥ कल्पत मफलः सारैमहापुण्यफलप्रवः ।। दिव्यश्चूर्णेश्च सद्गीतनंतनः पुष्पवर्षणः ॥३३७॥ ततः प्रस्तुत्य तीर्थेशान सार्थस्तद्गुणमूरिभिः । अर्जयित्वा परं पुण्यं ते गत्वा पूजयन्ति च ॥३३॥ वनस्थचैत्यवृक्षेषु जिनेन्द्रप्रतिमाः पराः । स्नपर्यास्त स्तुवन्त्येव प्रणमन्ति वृषाप्तये ॥३३६।। प्रर्थ:-वापिकाओं में स्नान करके, घमंराग रूपी उत्कट रस से भरे हुए वे इन्द्रादि देव अन्य देव समूहों के साथ देदीप्यमान मरिणमय उत्तम जिनालयों में जाते हैं ।।३३२॥ वहां जाकर धर्म की खान स्वरूप प्रहन्त प्रतिमाओं को उत्तमाङ्ग ( सिर ) से नमस्कार करके महाविभूति और अपूर्व भक्ति से महामहोत्सवों के द्वारा पूजा करते हैं ।।३३३॥ मरिणमय भृङ्गार की नाल के मुख से निकलते हुये स्वच्छ जल समूह से, अपनी सुवास से प्रकाश को व्याप्त करने वाले, तथा जगत् के भार स्वरूप दिध्य चन्दन के विलेपन से, पुण्य के अङ्कुर सदृश और दीर्घ मुक्ता फल सदश उत्तम प्रक्षतों से, करूप. वृक्षों से उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के फूलों की मालाओं से, रत्नपात्रों में रखे हुए, कल्पवृक्षों से

Loading...

Page Navigation
1 ... 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662