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पंचदशोऽधिकारः अब अकृत्रिम-कृत्रिम जिन बिम्बों के पूजन-अर्चन का वर्णन करते हैं:
नन्दीश्वरमहाद्वीपे नियमेन सुराधिपाः ।। वर्षमध्ये त्रिवारं च दिनाष्टावधिभूजितम् ॥३४५।। महामहं प्रकुर्वन्ति भूत्या स्नानाचनादिभिः । जिनालयेषु सर्वेषु प्रतिमारोपितार्हताम् ॥३४६॥ मेवादिविश्वशैलस्थाऽहन्मूर्तीस्तेऽर्चयन्ति च । गत्वा विमानमारम चापराः कृत्रिमेतराः ॥३४७॥ पश्चकल्याणकालेषु महापूजां जिनेशिनाम् । विभूत्या परया गत्वा भक्त्या कुर्वन्ति नाकिनः ॥३४।। स्थानस्था अहमिन्द्राश्च कल्याणपञ्चकेऽनिशम् । भक्त्याहंतः शिवप्राप्त्यं प्रणमन्ति स्तुवन्ति च ॥३४६।। गणेशादीन मुनीन् सर्वान नमन्ति शिरसा सवा । निर्वाणक्षेत्रपूजादीन् भजन्तीन्द्राश्च सामराः ॥३५०॥ जिनेन्द्र श्री मुखोत्पन्नां वारणी शृण्वन्ति ते सदा ।
तत्त्वगर्भा सुधर्माय परिवारविराजिताः ॥३५१।। अर्थः-सर्व देव समूहों से युक्त होकर इन्द्र नियम से वर्ष में तीन वार (प्रासाढ़, कार्तिक, फाल्गुन ) नन्दीश्वर द्वीप जाते हैं और वहां के सर्व जिनालयों में स्थित प्रहन्त प्रतिमाओं को महाविभूति अष्ट-अष्ट दिन पर्यन्त अभिषेक प्रादि क्रियाओं के साथ साथ महामह पूजा करते हैं ॥३४५३४६॥ अपने अपने विमानों पर प्रारोहण कर इन्द्र आदि देव मेरु मादि सर्व पर्वतों पर जाते हैं और वहां स्थित अकृत्रिम तथा कृत्रिम सर्व प्रतिमाओं की पूजा करते हैं ।।३४७॥ सर्व देव पञ्च. कल्याणकों के समय जाते हैं, और वहाँ पर जाकर विपुल विभूति के साथ भक्ति से जिनेन्द्र देवों को पूजा करते हैं ।।३४८1। पञ्चकल्याणकों के समय सर्व अहमिन्द्र अपने स्थानों पर स्थित रह कर ही कल्याण प्राप्ति के लिये अहंन्त भगवान को भक्ति से प्रणाम करते हैं और अहर्निश उनकी स्तुति करते हैं ॥३४६।। सर्व देवों के साथ इन्द्र, सर्व गणधरों को और मुनीश्वरों को निरन्तर सिर झुका कर नमस्कार करते हैं तथा निर्वास आदि क्षेत्रों की पूजा करते हैं ||३५०॥ इन्द्र सपरिवार समोश रण में जाकर उत्तम धर्म धारण हेतु श्री जिनेन्द्र भगवान के मुख से उत्पन्न तत्व और अर्थ से भरी हुई वाणी को निरन्तर सुनते हैं ॥३५१।।