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पंचदशोऽधिकारः
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गर्दतोय एवं प्रादित्य इन दोनों के मध्य में रहते हैं । १५०१५ श्रेयस्कर तथा १७०१७ क्षेमङ्कर देव, आदित्य एवं तुषित इन दोनों के मध्य में रहते हैं १९०१६ वशिट तथा २१०२१ कामघर देव, तुषित एवं वह्नि इन दोनों के मध्य में रहते हैं । २३०२३ निर्वाणरजस् तथा २५०२५ दिगन्तरकृत देव, वह्नि एवं अव्यावाध देवों के मध्य में निवास करते हैं । २७०२७ आत्मरक्षक श्रीर २९०२६ सर्वरक्षक देव, अव्यावाध एवं अरुण इन दोनों के मध्य में निवास करते हैं । ३१०३१ मरुत् तथा ३३०३३ चसव देव, अरुण और श्ररिष्ट के मध्य में रहते हैं । ३५०३५ प्रश्न देव एवं ३७०३७ विश्व देव अरिष्ट और सारस्वत इन दोनों के मध्य में रहते हैं । इन सब लोकान्तिक देवों का एकत्रित प्रमाण ४०७८ २० होता है ।
aa किस किस संहनन वाले जीव कहाँ तक उत्पन्न होते हैं ? इसका दिग्दर्शन कराते हैं:--
धर्माद्यष्टनाकेषु षट्संहननसंयुताः ।
श्रान्ति शुकादिकल्पेषु चतुषु चन्ति बिना ॥ २६४॥ पञ्चसंहनना श्रानताद्येष्वन्य चतुर्षु च । चतुः संहनना जीवा गच्छन्ति पुण्यपाकतः ।। २६५॥ नवप्रवेयकेषु युत्तमसंहननान्विताः । जायन्ते मुनयो दक्षा नवानुदिशनामनि २६६ ॥ अन्त्य द्विसंहननाढया यान्ति रत्नत्रयाजिताः । पञ्चानुत्तरसंज्ञे चादिसंहनन भूषिताः ||२७||
अर्थः- सौधर्मादि श्राट कल्पों में छहों संहनन वाले जीव उत्पन्न होते हैं। शुक्रादि चार कल्पों अन्तिम (असम्प्राप्तरूपाटिका ) संहनन को छोड़ कर पाँच संहनन वाले जीव तथा श्रान्तादि चार कल्पों में असम्प्राप्त और कीलक संहनन को छोड़ कर शेष चार संहनन वाले जीव पुण्योदय से उत्पन्न होते हैं ।। २६४ - २९४ ।। नवग्रैवेयकों में तीन उत्तम संहतनधारी मुनिराज, नव अनुदिशों में प्रादि के दो संहननों से युक्त रत्नत्रयधारो मुनिराज एवं पांच अनुत्तरों में मात्र वस्त्रवृषभनाराच संहनन वाले मुनिराज उत्पन्न होते हैं और इसी संहनन से मोक्ष भी जाते हैं ।। २९६-२६७।।
अब वैमानिक देवों को लेश्या का विभाग वर्शाते हैं:--
तेजोलेश्या जघन्यास्ति भावनादित्रयेषु च । सौधर्मज्ञानयोनित्यं तेजोलेश्या हि मध्यमा ॥२८॥