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सिद्धान्तसार दोपक
मानतादि चतुःस्वर्गवासिनामुत्तमान्तरम् । चातुर्मासावधियं मरणे सम्भवे तथा ॥२१७॥ नव वेयकाधेषु मरणे च समुद्भवे ।
सर्वेषामहमिन्द्रागां मासषट्कं परान्तरम् ॥२१८॥ अर्थ:-[ उस्कृष्टता से जितने काल तक किसी भी जीव का जन्म न हो उसे जन्मान्तर और मररण न हो उसे मरणान्तर कहते हैं 7 सौधर्मेशान इन कल्पों में यदि कोई भी जीव जन्म न ले तो अधिक से अधिक सात दिन पर्यन्त न ले । इसी प्रकार मरण न करे तो सात दिन पर्यन्त न करे, इसलिये वहाँ देवों के जन्म-मरण का अन्तर सात दिन कहा गया है ॥२१॥ सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पवासी देवों के कर्म उदयानुसार जन्म-मरण का उत्कृष्ट अन्तर एक पक्ष है ॥२१४॥ ब्रह्म आदि चार स्वों के देवों के जन्म-मरण का उत्कृष्ट अन्तर एक माह है ।।२१।। शुक्र आदि चार स्वर्गों के देवों के जन्म-मरण का उत्कृष्ट अन्तर दो मास है ।।२१६॥ पानतादि चार स्वगों में निवास करने वाले देवों के जन्म मरण का उत्कृष्ट अन्तर चार माह का जानना चाहिये ।।२१७॥ नववेयक आदि उपरिम सर्व विमानों में उत्पन्न होने वाले सर्व अहमिन्द्रों का उत्कृष्ट जन्मान्तर एवं मरणान्तर छह माह का है ।२१८।।
अब इन्द्राविकों के जन्म-मरण का उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं:
इन्द्रस्य च महादेश्या लोकपालस्य दुस्सहः । जायते विरहो मासषटकं हि पक्ने महान् ॥२१६॥ प्रायस्त्रिशसुराणां च सामानिकसुधाशिमाम् । अगरक्षकदेवानां च्यवने सति दुस्सहम् ।।२२०।। परिषत्रयदेवानां वियोगोद्भवमन्तरे ।
मानसं जायसे दुःखं चतुर्मासान्तमुत्तमम् ।।२२१।। अर्थ:-इन्द्र, इन्द्र की महादेवी और लोकपाल इनका दुस्सह उत्कृष्ट विरहकाल छह माह प्रमाण है । अर्थात् इनका मरण होने पर कोई अन्य जीव उस स्थान पर अधिक से अधिक छह माह तक जन्म नहीं लेगा ॥२१॥ वायस्त्रिश, सामानिक, अङ्ग रक्षक और पारिषद देवों का भरण होने के बाद उनके दुस्सह वियोग से उत्पन्न होने वाला मानसिक दुःख उत्कृष्ट रूप से चार माह पर्यन्त होता है । अर्थात् इनका उस्कृष्ट विरह काल चार माह है ॥२२०-२२१॥