Book Title: Siddhantasara Dipak
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

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Page 603
________________ पंचदशोऽधिकार [ ५५७ प्रब देव विशेषों के अन्तिम उत्पत्ति स्याभों का प्रतिपादन करते हैं:-- ईशानान्तं प्रजायन्ते कन्दर्पाः कुत्सिताः सुराः । लान्तवस्वर्गपर्यन्तं नीचाः किल्यिषिकामराः ॥२२२॥ अच्युतान्तेषु कल्पेषुत्पद्यन्ते बाहनामराः । प्राभियोगिकसंज्ञाश्च स्वपापपुण्यपाकतः ।।२२३॥ अर्थ:-( कान्दर्प परिणामी मनुष्य ) अपने अपने पाप एवं पुण्योदय से कुत्सित परिणामी कन्दर्प जाति के देवों में ईशान कल्प पर्यन्त, (कैल्विषिक परिणामी मनुष्य ) नीच परिणामी किल्विष जाति के देवों में लान्त व फल्प पर्यन्त और ( अभियोग्य भावना से युक्त मनुष्य ) भाभियोगिक है नाम जिनका ऐसे वाहन जाति के देवों में अच्युत कल्प पर्यन्त उत्पन्न होते हैं, इससे ऊपर नहीं ( इनकी उत्पत्ति क्षेत्र सम्बन्धी जघन्यायु होती है ) ॥२२२-२२३॥ प्रब प्रथमादि युगलों में स्थित देवों को स्थिति विशेष कहते हैं: प्रायुः पल्यं जघन्यं स्यादुत्कृष्टं सागराधकम् । सौधर्मस्याविमेऽन्ते पटले साधौ द्विसागरौ ॥२२४।। सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः सार्धसप्तसागराः । अझनझोत्तरे चायुमहत्साधंदशाब्धयः ।।२२५।। पायुलन्तिधकापिष्टे सार्धद्विसप्तवार्धयः । तथा शुक्रमहाशुक्रयोः सार्धषोडशाब्धयः ॥२२६॥ शताराविद्वये चायुः सार्धाष्टादशसागराः । मानतप्राणतस्वर्गे प्रोत्कृष्ट विंशवायः ॥२२७॥ प्रारणाच्युतयोर्देवानां तद् द्वाविंशसागराः । सतः सागर एकक प्रादिग्न वेयकाक्षिषु ॥२२८।। वर्धते चाहमिन्द्राणां यावद् ग्रंयकान्तिमे । मायुस्तिष्ठति वार्थीनामेकत्रिशन्मितं परम् ॥२२६।। नवानुदिशदेवानामायुद्वात्रिंशशब्धयः । पञ्चानुत्तरदेवानां त्रयस्त्रिशच्च सागराः ।।२३०॥

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