Book Title: Siddhantasara Dipak
Author(s): Bhattarak Sakalkirti, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

View full book text
Previous | Next

Page 601
________________ पंचदशोऽधिकार मिथ्याष्टिकुदेवानां विपरीतानि तानि च । कुजम्नाति प्रजायन्ते विपरीतार्थं वेदनात् ॥ २१२ ॥ [ ५५५ अर्थ :- सौधर्मेशान कल्प स्थित देव अपने अवधि ज्ञान से नरक की प्रथम पृथ्वी पर्यन्त के रूपी द्रव्यों को चराचर दखते हैं ||२०१ ॥ सनत्कुमार- माहेन्द्रकल्प स्थित देव अपने अवधि नेत्र से दूसरी वंशा पृथ्वी पर्यन्त के समस्त रूपी द्रव्यों को जानते हैं ॥। २०२ || ब्रह्मादि चार स्वर्गस्य देव तीसरी मेघा पृथ्वी पर्यन्त के रूपी द्रव्यों को अवधि द्वारा जानते हैं ||२०३ || शुक्रादि चार स्वर्गस्थ देव अपने अवधि नेत्र से चौथी श्रञ्जना पृथ्वी पर्यन्त के सकल रूपी द्रव्यों को जानते हैं ॥२०४॥ प्रानतादि चार स्वर्गस्थ देव अपने अवधिज्ञान के बल से पांचवीं अरिष्टा पृथ्वी पर्यन्त के समस्त रूपी द्रव्यों को देखते हैं ||२०५ || नवयं वेयक स्वर्गो में स्थित देव छठवीं मघवी पृथ्वी पर्यन्त के सकल रूपी द्रव्यों को अपने अवधिज्ञान से जानते हैं ||२०६|| नव अनुदिश एवं पांच अनुत्तर अर्थात् चौदह विमानों में स्थित ग्रहमिन्द्र सातवीं माघवो पृथ्वी पर्यन्त के रूपी द्रयों को जानते हैं || २०७|| श्री पांच अनुत्तर विमानवासी देव अपने अवधि नेत्र से लोकनाड़ी पर्यन्त के सर्व रूपी द्रव्यों को अपने अवधि नेत्र से चराचर देखते हैं ।। २०८ || सौधर्म स्वर्ग से लेकर पांच अनुत्तर पर्यन्त के देव क्रमश: नरक की प्रथम पृथ्वी से लोकनाड़ी के भीतर सप्तम पृथ्वी पर्यन्त अवधिज्ञान के सदृश हो श्रनेक प्रकार की विक्रिया करने की शक्ति से सम्पन्न होते हैं, तथा इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी पर्यन्त गमनागमन की शक्ति से भी सयुक्त होते हैं ।।२०६ - २१० ।। स्वर्गो में सम्यग्दृष्टि देवों के मति श्रुत एवं अवधिज्ञान समीचीन होते हैं, जिससे ये रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं ।। २११ ।। किन्तु मिथ्यारष्टि ढेबों के ये तीनों ज्ञान मिथ्या होते है, क्योंकि वे ( कारणादि विपर्यास के कारण ) पदार्थों ( तत्वों ) को विपरीत जानते हैं अतः उनका ज्ञान कुज्ञान कहलाता है || २१२ ॥ ―― * वैमानिक देवों के जन्ममरण के अस्तर का निरूपण करते हैं:सौधर्मेशानयोः प्रोक्तमुत्पत्ती मरणेऽन्तरम् । उत्कृष्टेन च देवानां विनानि सप्त नान्यथा ॥ २१३॥ सनत्कुमारमाहेन्द्रवासिनां कर्मपातः । सम्भये मरख्यातं पक्षैकमन्तरं परम् ॥ २१४॥ अन्तरं ब्रह्मनाकावि चतुःस्वर्ग निवासिनाम् । उत्पत्तौ च्यवने स्याच्च महत्मासैकमेवहि ॥ २१५ ।। अन्तरं मरणोत्पत्तौ भवेच्च नाकिनां विधेः । मासौ द्वौ परमं शुक्रादिकस्वर्ग चतुष्टये ॥ २१६ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662