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सिद्धान्तसार दीपक अब इन्द्रों की उत्पत्ति गृह का अवस्थान एवं प्रमाण प्रादि कहते हैं:--
तस्य पार्वेऽस्ति शशमायागृहाणिवाद । प्रष्टयोजनविस्तारायामोन्नति युतं परम् ॥१८७।। तस्मिन्गृहान्तरे रत्नशिलायुग्मं च विद्यते । शिलासम्पुटयोगर्भ रत्लशय्यातिकोमला ।।१८८।। कृतपुण्यस्य शक्रस्य तस्यां जन्मसुखाधिगम् ।
सुखेन जायतेऽङ्गं सम्पूर्णमन्तमुहूर्ततः ॥१८६।। अर्थः-मानग्तम्भ के पाठवभाग में ८ योजन नौडा, ८ योजन सम्बर, ८ योन चर एवं प्रान अष्ठ इन्द्र का उपपाद गृह है ।।१८७॥ उस उपपाद गृह के भीतर रलों को दो शिलायें हैं. तथा उन शिलाओं के मध्य में अत्यन्त कोमल रत्न शय्याएँ हैं। उन शय्यानों पर पूर्व भव में किया है पुण्य ।। जिन्होंने ऐसे इन्द्रों की उत्पत्ति सुख पूर्वक होती है, तथा उनका सुख समुद्र सदृश सम्पूर्ण शरीर अन्तमुहूर्त में पूर्ण हो जाता है ।।१८५-५८६।।
अब कल्पवासी देवांगनानों के उत्पत्ति स्थान कहते हैं:--
षड्लक्षसद्विमानानि सौधर्म सन्ति केवलम् । स्वर्गदेवीसमुत्पादस्थानानि शाश्वतानि च ।।१६०॥ ईशाने स्युश्चतुर्लक्ष विमानाः सुरयोषिताम् । लभन्ते केवलं येषु जन्म देव्यो न चामराः ॥१६॥ एभ्य स्ताः स्वस्वसम्बंधिनीदेवीश्च समुद्भवाः । सनत्कुमारकल्पाद्यच्युतान्सवासिनोऽभराः ॥१२॥ स्वस्थास्थानं नयन्त्याशु विज्ञायावधिना निजाः । शेष कल्पेषु वेवीनामुत्पादो नास्तिजाचित् ॥१६॥ सौधर्मशानयोः शेषा ये विमाना हि तेषु च ।
प्राप्नुवन्ति निजं जन्म देवा देव्यः शुभोदयात् ॥१४॥ अर्थः-सौधर्म स्वर्ग में उत्तम और शाश्वत छह लाख विमान शुद्ध हैं, जिनमें (अच्युत स्वर्ग पर्यन्त के दक्षिण कल्पों की ) मात्र देवांगनाओं की उत्पत्ति होती है, तथा ईशान स्वर्ग में चार लाख