________________
४६२]
सिद्धान्तसार दीपक तन्मध्ये योजनानां घाशीत्यग्रशतसम्मितम् । इन्वो नोस्तथा चारक्षेश द्वीपादिमे पृथक् ॥१॥ तथाधौ योजनानां स्यात्रिशदनशतत्रयम् । दिवाकरस्य चन्द्रस्य चारक्षेत्र किलादिमे ॥२॥ सूर्यचन्द्राविमो चाद्यद्वीपाध्यो भ्रमतोऽन्यहम् । नरक्षेशे भमन्त्यन्ये स्वस्वद्वीपाब्धिगोचराः ॥३॥ शतं चतुरशीत्यनमार्गाः सूर्यस्य सन्ति च । चारक्षेत्रोऽखिला इन्दोर्मार्गाः पञ्चदशप्रमाः ॥४॥ एषां मध्य ब्रजदेक मार्ग दिन दिन प्रति ।
दिननाथस्तथा चन्द्रः क्रमेणेषां सदागतिः ॥६५॥ अर्थ:--( सूर्य-चन्द्र के गमन करने की क्षेत्र गली को चार क्षेत्र कहते हैं। दो चन्द्रों और दो सूर्यो के प्रति एक एफ चार क्षेत्र होते हैं । ) सूर्य बिम्ब के विस्तार (1) प्रमाण से अधिक ५१० योजन अर्थात् ५१० योजन ( २.४३१४७३६ मील ) विस्तार वाला एक चारक्षेत्र सूर्य का है ।।६।। सथा जिनेन्द्र द्वारा चन्द्र विम्ब के विस्तार (१ यो० ) से अधिक ५१० योजन अर्थात् ५१.११ पोजन ( २०४३६७२४६ मील ) विस्तार वाला एक चारक्षेत्र चन्द्र का है।। ६० ॥ चन्द्र-सूर्यों के अपने अपने चारक्षेत्रों के विस्तार में से जम्बूद्वीप में इनके चार क्षेत्र का प्रमाण मात्र १५० योजन ( ७२०००० मील ) है । अवशेष ३३० योजन प्रमाण वाला चार क्षेत्र लवणसमुद में है । अर्थात् जम्बूद्वीपस्थ चन्द्रसूर्य जम्बूद्वीप के भीतर १८० योजन में ही विचरते हैं। शेष ३३० योजन लवण समुद्र में विचरण करते हैं ॥६१-६२॥ इस प्रकार मनुष्यक्षेत्र में जम्बूद्वीप सम्बन्धी चन्द्र सूर्य जम्बूद्वीप और लवरण समुद्र इन दोनों में भ्रमण करते हैं, किन्तु अवशेष धातकीखण्ड को प्रादि कर पुष्कराध पर्यन्त द्वीप समुद्र सम्बन्धी चन्द्र सूर्यों का भ्रमण अपने अपने द्वीप समुद्रों में ही होता है, उसके बाहर नहीं । अर्थात् वहाँ के चन्द्र सूर्यों के चारक्षेत्र अपने अपने द्वीप समुद्रों में ही हैं ।।१३।। अपने अपने प्रमाण वश्ले चारक्षेत्रों में चन्द्र की १५ गलियों तथा सूर्य को १८४ गलियाँ हैं ।।६४॥ इन अपनी अपनी गलियों के मध्य अनुक्रम से निरन्तर गमन करते हुए प्रतिदिन दो-दो सूर्य और दो-दो चन्द्र संचार करते हैं । अर्थात् प्रामने सामने रहते हुए दो सूर्य प्रति दिन एक गली को पूर्ण कर लेते हैं ।।६.५३।
अधुना बालावबोधाय संस्कृतभाषयादित्यस्य किश्चिद्विवरण विधीयते :--
तेषां मार्गाणां मध्ये जम्बूद्वीपाभ्यन्तरे श्रावणकृष्णपक्षादिदिने कर्कटसंक्रान्ति दिवसे दक्षिणायन प्रारम्भे निषधकुलपर्वतस्योपरिप्रथममार्गरविः प्रथमोदयं करोति । तदादित्यविमानध्वजस्तम्भार.