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पंचदशोऽधिकारः
[ ५३५ वृषभाः प्रवरा अश्वा रथा गजा पदातयः । गन्धर्वा देवनर्तक्यः सप्सानीका प्रमो पृथक् ।।१४।। सप्तानामादिम सैन्यं स्वस्वसामानिकः समम् ।
स्युः शेषाः षड्वरानीका द्विगुरगा हिगुणाः पृथक् ॥१४२॥ अर्थ:--प्रादि चार अर्थात् सौधर्म, ऐशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में सामानिक देवों का प्रमाण क्रमशः ८४०००, ८००००, ७२००० और ७०००० है ॥१३८।। इनके ऊपर के चार युगलों में दश-दश हजार हीन हैं । अर्था तृतीय युगल में ६००००, चतुर्थे युगल में ५००००, पंचम युगल में ४०००० और षष्ठ युगल में ३०००० सामानिक देव हैं, तथा शेष प्रानतादि चार कल्पों के एक स्थान २०००० सामानिक देव हैं ।।१३६।। प्रत्येक स्थान में अगर देवों का प्रमाला सामानिक देवों के प्रमाण से चतुगुणा है। जैसे-सौधर्म स्वर्ग में ८४०००४४-३३६००० अङ्गरक्षक, ऐशान में ८००००४४= ३२०००० अङ्गरक्षक इत्यादि । प्रथम आदि स्वर्गों में वृषभ को आदि लेकर क्रमशः पृथक् पृथक् सात-सात अनीक सेनाएँ होती हैं, ।। १४०॥ श्रेष्ठ एवं अनुपम वृषभ. अक्छ, रथ, हाथी, पदाति, गन्धर्व और नर्तकी, ये पृथक् पृथक् सात अनीक सेनाएँ नव स्थानों में होती हैं ॥१४१।। इन सातों सेनाओं में से जो वृषभ नाम की सात प्रकार को प्राद्य सेना है, उसमें वृषभों का प्रमाण अपने अपने सामानिक देवों के प्रमाण सदृश है तथा अवशेष छह अनोकों में वृषभों का प्रमाण पृथक पृथक क्रमश: दूना-दूना होता गया है ।। १४२।। अब दक्षिणेन्द्र और उत्तरेन्द्र के अनीक नायकों के नाम कहते हैं:--
दामाख्यो हरिदामाख्यो मातलिनामकस्ततः । ऐरावताह्वयो वायुनामारिष्टयशरेभिधः ॥१४३३॥ नोलाजनामरी चैते सप्तसेनमहत्त राः । षण्णां स्युर्दक्षिणेन्द्राणां सप्तसैन्यानिमाः पृथक् ॥१४४॥ महादामाभिधः स्वेच्छगामी च रथमन्यनः । पुष्पदन्तो महावीर्यो गीतप्रीतिमहामतिः ॥१४॥ इमे महत्तराः सप्त सन्ति स्वसैनिकाग्रिमाः ।
क्रमेण सप्त संन्यानामुत्तरेन्द्रा खिलात्मनाम् ।।१४६॥ अर्थः-- छह दक्षिणेन्द्रों के सात अनोक सेनामों के प्रागे भागे चलने वाले पृथक् पृथक् दाम, हरिधाम, मातलि, ऐरावत, वायु, अरिष्टयशा और नोलाजना नाम छह दक्षिणेन्द्रों के ये सात सात