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पंचदशोऽधिकारी
मानतेन्द्रादयः शेषारचातुः कम्पेषु नायकाः ।
ज्येष.णिविदिग् द्वि द्वि विमानानां च पूर्ववत् ।।६२॥ अर्थ:-सोधर्मेशान कल्प के सर्व पटलों सर्व इन्द्रक (३१), पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशा, माग्नेय एवं वायव्य विदिशा सम्बन्धी सर्व (४३७१) श्रेणीबद्ध विमानों एवं सर्व प्रकीर्णक विमानों में सौधर्मेन्द्र का ही स्वामित्व है । अर्थात् इनमें सौधर्म इन्द्र की प्राज्ञा का प्रवर्तन होता है ।।८७-८८।। उत्तर दिशा सम्बन्धी और वायव्य एवं ईशान कोण सम्बन्धी श्रेणीबद्धों एवं प्रकीर्णक विमानों में ईशान इन्द्र का स्वामित्व है ।।८६। इसी प्रकार सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्पस्थ विमानों में सनत्कुमार माहेन्द्र इन्द्रों का पृथक् पृथक् स्वामित्व है ॥६॥ ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ट, शुक्र-महाशुक्र और शतार-सहस्रार इन चार युगल सम्बन्धी इन्द्र क, चारों दिशा विदिशा सम्बन्धी श्रेणीबद्धों और प्रकीर्णक विमानों के स्वामी ब्रह्म, नान्तव, शुक्र और शतार नाम के चार इन्द्र हैं ॥१॥ मानत आदि दो कल्पों में पूर्व, दक्षिण और पश्चिम इन तीन दिशाओं के प्राध्नेय और वायव्य इन दो विदिशाओं के श्रेणीबद्धों एवं प्रकीर्णक विमानों का स्वामी प्रागत इन्द्र है, तथा उत्तर दिशागत, वायव्य ईशान कोण गत श्रेणीबद्धों एवं सर्व प्रकीर्णक विमानों का स्वामी मानत नाम का इन्द्र है । अर्थात् स्वामित्व की जो व्यवस्था प्रथम युगल में है, उसी प्रकार यहां जानना चाहिए ॥२॥ अब इग्न स्थित श्रेणीबद्ध विमानों का कथन करते हैं:
वसतश्चादिकल्पेशाबन्तिमे पटले निजे । प्रष्टादशे विमाने हि दक्षिणोत्तरयोविंशोः ।।६।। सनकुमारमाहेन्द्री तिष्ठतः पटलेऽन्तिमे । विमाने षोडशे श्रेण्योदक्षिणोत्तर भागयोः ॥४॥ ब्रह्मन्द्रो दक्षिणाशायां चरमे पटले बसेन । मुदा चतुर्वशे विव्ये श्रेणीबद्ध विमानके ॥६५॥ तिष्ठेद्दक्षिणविभागे द्वितीये पटलेऽनिशम् । लान्तवेन्द्रो विमाने द्वादशमे स्त्रोतुरावृतः ॥६६॥ शुक्रेन्द्रो वशमे रम्ये विमाने वसति स्वयम् । दक्षिणरिणभागस्थ पटलस्यामरैः समम् ॥१७॥ शतारेन्द्रो वसेत्साधं देव्याः पटले निजे। दक्षिणीणि सम्बन्ध विमाने प्रवरेकमे 18|