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पंचदशोऽधिकारः
अब उक्त नगरों के प्राकारों की ऊँचाई का प्रमाण कहते हैं:
त्रिशतान्याद्ययुग्मे तत्प्राकाराणां समुच्छ्रयः ।
योजनानां त्रिनुग्मेषु पश्चाशत् पृथगूनता ॥ १२३ ॥
शहितानि
च ।
षष्ठे युग्मे च षेषु हीनानि विंशतिः पृथक् ॥ १२४॥
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अर्थ :--- प्रथम युगल में प्राकारों की ऊँचाई ३०० योजन है, श्रागे के तीन युगलों में पृथकपृथक् ५०-५० योजन हीन है, पांचवें युगल में ३० योजन होन, छठवें युगल में और शेष (आनतादि स्वर्गो में पृथक् पृथक् २०-२० योजन होन है ।।१२३ - १२४॥
अब इसी ऊंचाई को विस्तार पूर्वक कहते हैं:
श्रस्य विस्तरमाह :--
सोधर्मेशानयोः नगरस्थ प्राकाराणामुत्सेधः त्रिशतयोजनानि । सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः सार्धं • द्विशतयोजनानि । ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोर्योजनां द्वे शते । लान्तवकापिष्ठयो सार्वशतं । शुक्रमहाशुकयोः विशाग्रं शतं । शतारसहस्रारयोः प्राकारोदयः शतयोजनानि । श्राततप्राणतारणाच्युतकल्पेषु नगराणां प्राकारोत्सेधः प्रशीतियोजनानि ।
अर्थ :-- सौधर्मेशान कल्प में स्थित नगरों के प्राकारों की ऊँचाई ३०० योजन, सानत्कुमार माहेन्द्र कल्प स्थित प्राकारों की २५० योजन, ब्रह्मब्रह्मोत्तर में २०० योजन, लान्तव कापिष्ट में १५० योजन, शुक्र- महाशुक्र में १२० योजन, शतार- सहस्रार के प्राकारों की १०० योजन और प्रान्तप्रारणत-भाररण और अच्युत स्वर्गो में स्थित नगरों के प्राकारों की ऊँचाई ८०-८० योजन प्रमाण है ।
उन्हीं प्राकारों के गाघ ( नींव ) और व्यास का प्रमाण कहते हैं:
षट्सु युग्मेषु शेषेषु सप्तस्थानेष्वितिक्रमात् । प्राकाराणां पृथग्ग्यासोऽवगाहश्चाभिधीयते ।। १२५ ।। योजनानां च पञ्चाशत्ततोऽर्धार्धं पृथक् त्रिषु । ततः क्रमेण चत्वारि त्रीणि सार्धे द्वि योजने ॥ १२६ ॥