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चतुर्दशोऽधिकारः
[ ५०१ ये नीचदेव संशता नीचा नीचगुरु श्रिताः । नीचधर्मरता नीचपाखण्डिभाक्तिकाः शठाः ॥१३॥ नीचसंयमदुर्वेषा नीचशास्त्रतपोन्विताः । तेऽहो सर्वत्र नीघाः स्युर्देवत्वेऽन्यत्र वा सवा ॥१३२॥ मस्वेति जैनसन्मार्ग स्वर्मोक्षवं सुखाथिभिः ।
विमुच्य श्रेयसे जातु न ग्राह्य दुःपथं खलम् ॥१३३॥ अर्थः-सर्व ज्योतिष्क देवों ( सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु, नक्षत्र और तारागणों) के शरीर की ऊंचाई सात धनुष प्रमाण है। सर्व नि:कृष्ट अर्थात् पुण्य हीन देवों में से प्रत्येक के ३२-३२ ही देवोगनाएं होती हैं ॥१२७।। जो जीव यहां उन्मार्ग का पाचरण करते हैं, सम्यादर्शन के विराधक हैं, अकाम निर्जरा से युक्त हैं, अज्ञानी हैं, बाल अर्थात् मज्ञान तप को तपने वाले हैं, धर्माचरण में शिथिल हैं, खोटे संयम के धारी हैं, पञ्चाग्नि श्रादि तपों में श्रद्धा रखते हैं, निदान सहित तप तपते हैं, अज्ञान तप से शरीर को कष्ट देते हैं तथा शिवलिंग प्रादि के उपासक हैं वे मनुष्य मादि मर कर भवनत्रय में जन्म लेते हैं एवं अन्य भी तोन नीच गतियों में जन्म लेते हैं ।।१२८-१३०। जो कुदेवों में संशक्त हैं, खोटे गुरुत्रों का पाश्रय ग्रहण करते हैं, खोटे धर्मों में संलग्न रहते हैं, नीच और पाखण्डी गुरुत्रों के भक्त हैं, मूर्ख हैं, खोटे संयम को धारण कर नाना प्रकार के खोटे वेष बनाते हैं, खोटे शास्त्र और खोटे तप से युक्त हैं. खेद है कि वे सब नीच देवों ( भवनत्रिक आदि ) में उत्पन्न होते हैं, तथा अन्यत्र भी नीच गतियों में ही निरन्तर उत्पन्न होते हैं ।। १३१-१३२॥ ऐसा मान कर सुखार्थी जीवों को स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करने वाले जैन धर्म स्वरूप समीचीन मार्ग को छोड़ कर दुःख देने वाले खोटे मार्ग का प्राश्रय कभी भी ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥१३।। करणानुयोग शास्त्रों के अध्ययन को प्रेरणा:
एतस्पुण्यनिधानकं जिनमुखोद्भूतं सुधर्माकरम, धर्मध्यान निबन्धनं ह्यघहरं लोकानुयोगश्रुतम् । ज्योतिएकामरभूतिवर्णनकर भव्यात्मना बोषकम्
सारं ज्ञानशिवाधिनोप्यनुदिनं सिद्धयं पठन्स्वावरात् ॥१३४।। अर्थ:-इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के मुखारविन्द से उद्भूत, पुण्य का निधान, समीचीन धर्म का प्राकर, धर्मध्यान का निबन्धक, पाप का नाशक, भव्य जीवों को बोध देने वाले, सारभूत पौर ज्योतिष्क देवों की विभूति आदि के वर्णन से युक्त इस करणानुयोग शास्त्र को केवल ज्ञान एवं मोक्ष के