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त्रयोदशोऽधिकारस
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sue नित्योपादादि वानव्यन्तर देवों का निवास क्षेत्र कहते हैं एकं हस्तान्तरं त्यक्त्वा ह्याद्यचित्रामहीतले । नित्योत्पादक नामानो वसन्ति व्यन्तरामराः ॥१०१॥ सतो दशसहस्त्राणि हस्तानां च विहाय च । सन्ति विम्वासितस्त्यक्त्वा स्मादोवंश सहस्रान् ॥ १०२ ॥
वसन्त्यन्तरवासाख्याः पुनर्दशसहस्रकाम् । कस्त्यक्त्वा च कूष्माण्डास्तिष्ठन्त्यतो विमुच्य च ॥१०३॥
हस्तविंशसहस्राणि वसन्त्युत्पन्न निर्जराः । ततो विशसहस्राणि करारणां प्रविहाय च ॥ १०४॥ सम्स्यनुत्पद्मगीर्वाणास्तस्माद् विशसहलकान् । करान् मुक्त्वा वसन्त्येव प्रमाणकाभिधाः सुराः ॥ १०५ ॥ ३ ततो विशसहस्राणि हस्तानां परिमुच्य च । तिष्ठन्ति गन्धगीर्वाणास्तस्माद् विशसहस्रकात् ॥१०६॥ हस्तांस्त्यक्त्वा महागन्धाः पुनविमुच्य विशति । सहस्राणि कराणां स्युर्भुजगाच्या विहाय च ॥१०७॥ पुनवशसहस्राणि हस्तानां निवसन्ति च । प्रीतिङ्करास्ततस्त्यक्त्वा करविंशसहस्रकात् ॥१०६॥
प्रकाशोत्सनामानो देवा वसन्ति भूतले । एते द्वादशधा देवा विज्ञेया वानव्यन्तराः ॥१०६॥
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अर्थ :- चित्रा पृथ्वी के ऊपर एक हाथ का अन्तराल छोड़ कर निस्योत्पादक नाम के व्यन्तर देव रहते हैं ।। १०१ ।। इनसे १०००० हाथ छोड़ कर दिग्वासी देव, इनसे १०००० हाथ छोड़ कर अन्तरवासी नाम के देव रहते हैं । इनसे १०००० हाथ छोड़कर कूष्माण्ड देव रहते हैं । इनसे २०००० हाथ छोड़ कर उत्पन्न देव तथा इनसे २०००० हाथ छोड़ कर श्रनुत्पन्न देव रहते हैं । इनसे २०००० हाथ छोड़ कर प्रमाणक देव, इनसे २०००० हाथ छोड़ कर गन्ध देव, इनसे २० हजार हाथ छोड़ कर महागन्ध नाम के देव, इनसे २० हजार हाथ छोड़ कर भुजग नामक देव, इनसे २० हजार हाथ छोड़कर प्रीतिकर और इनसे २० हजार हाथ छोड़ कर आकाशोत्पन्न नाम के देव निवास करते हैं। इस प्रकार भूतल पर इन बारह प्रकार के व्यन्सर देवों का निवास जानना चाहिए ।।१०२-१०६।।