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चतुर्दशोऽधिकारः
[ ४४ . अर्थ:-एक तारा से दूसरी तारा का तिर्यग नपन्य मन्तर एक कोश · का सातवा भाग अर्थात कोश (१४२ मील) है। तिमंग मध्यम अन्तर ५० योजन (ो लाख मील ) मोर उत्कृष्ट अन्तर १०० योजन ( ४ लाख मील है। कुछ कम एक योजन व्यास वाला राहु का विमान चन्द्र विमान के अघोभाग में कुछ अन्तराल से गमन करता हुमा प्रत्येक छह मास बाद पर्व (पूणिमा) के अन्त में चन्द्र के विमान को प्राच्छादित कर लेता है। लोक में यही आच्छादन किया चन्द्र ग्रहण के नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार कुछ कम एक योजन व्यास वाला कृष्णवर्ण केतु का विमान सूर्य विमान के अधोमाग में कुछ अन्तराल से गमन करता हुँमा प्रत्येक छह मास बाद पर्व ( अमावस्या) के अन्त में सूर्य के विमान को आच्छादित कर लेता है, लोक में इसी को सूर्य ग्रहण कहते हैं । श्यामवर्ण राहु विमान को ध्वजा दण्ड से चार प्रमाणांगुल ऊपर आकाश में अन्द्र बिमाम अवस्थित है, इसी प्रकार श्यामवर्ण केतु विमान को ध्वजा दण्ड से चार प्रमारपांगुल ऊपर साकास में सूर्य विमान अवस्थित है। चन्द्र विमान के नीचे स्थित अंजन वर्ण राह के गमन विशेष के वश से कृष्णपक्ष में प्रतिपदा से प्रारम्भ कर अमावस्या पर्यन्त चन्द्र की सोलह कलाओं में से एक एक अंश प्रतिदिन घटता जाता है । अर्थात् कृष्ण रूप होता जाता है। उसी प्रकार शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से प्रारम्भ कर पूर्णिमा पर्यन्त एक एक मंश प्रतिदिन वृद्धिंगत होता जाता है । अर्थात् शुक्लरूप होता जाता है ।।२५-३४॥ प्रब अन्य प्रकार से चन्द्र कलाओं को हानि वृद्धि का कथन करते हैं:
शुक्लपक्षे सदा राहुः स्वयं मन्दगतिर्भवेत् । चन्द्रस्यैव निसर्गेण शीघ्रा गतिश्च सत्यपि ॥३५॥ कृष्णपक्षे सदा राहोर्मता शीघ्र गतिर्बुधः । स्वभावेन च चन्द्रस्य मन्दागतिदिनं प्रति ॥३६॥ एवं गतिवशाच्चन्द्र कलानां प्रत्यहं भवेत् ।
षोडशानां कलंकका हानिधिद्विपक्षयोः ॥३७॥ अर्थ:-शुक्लपक्ष में राहु को गति हमेशा स्वभाव से ही मन्द होती जाती है और स्वभावतः हो चन्द्र की गति तेज होती जाती है। इसी प्रकार कृष्णपक्ष में प्रतिदिन राहु को स्वभावतः शोन गति हो जाती है और चन्द्र की मन्दगति होती जाती है, ऐसा विद्वज्जनों के द्वारा कहा गया है ॥३५३६॥ इस प्रकार गति विशेष के वश से दोनों पक्षों में प्रतिदिन चन्द्र की सोलह कलानों में हानि-वृद्धि होती है ॥३७।।
प्रब चन्द्राविक ज्योतिषी देवों के विमान वाहक देवों के प्राकार और संकमा का विवेवन करते हैं :