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त्रयोदशोऽधिकार सार्षपञ्चमुहूर्त निक्रान्तरपछवास एव च । व्यन्तराणामसंख्यातयोजनाम्यवधिर्मतः ।।११६॥ उत्कृष्टोहि जघन्यश्च पञ्चविंशतियोजनः ।
ऊर्ध्वाधोऽपि कियन्मात्रो भवप्रत्ययसम्भवः ॥१२०॥ अर्थः-श्यन्तर देवों की उत्कृष्ट प्रायु एक पल्य प्रमाण और जघन्य प्रायु दश हजार वर्ष प्रमाण होती है ॥११७॥ समस्त व्यन्तर देवों के शरीर की ऊँचाई दश धनुष प्रमाण है। ५६ दिन व्यतीत हो जाने के बाद व्यन्तर देव मनसा ग्राहार करते हैं और ५३ मुहूर्त व्यतीत हो जाने के बाद श्वासोच्छवास लेते हैं । व्यन्तर देवों का उत्कृष्ट अवधि क्षेत्र असंख्यात योजन प्रमाण और जघन्य अवधिक्षेत्र २५ योजन प्रमाण है। ये ऊर्ध्व और प्रध: कुछ भवों को भी यथा सम्भव जानते हैं ॥११८-१२०।। अब प्राचार्य करणानुयोग पढ़ने की प्रेरणा देते हैं :
एतद् व्यन्तरजातिमेदविभस्थित्यादिसंसुनकम् । धर्मध्याननिबन्धनं ह्यघहरं चाहन्मुखाब्जोद्भवम् ॥ सिद्धान्तं फरणानुयोगममलं चित्ताक्षवन्त्यङ्कुशम् ।
सचानाय सुयोगिनः सुविधिना नित्यं पठन्वावरात् ॥१२॥ अर्थ:-इस प्रकार व्यन्तर देवों के जाति, भेद, वैभव और स्थिति आदि को संसूचन करने वाला, धर्मध्यान का हेतु. पापनाशक, अर्हन्त भगवान् के मुख रूपी कमल से उत्पन्न तथा मन और इन्द्रिय रूपी हाथी को वश करने के लिये अंकुश के सदृश इस सिद्धान्तसार रूप निर्मल करणानुयोग को उत्तम ध्यान की सिद्धि के लिये उत्तम योगीनन विधिविधान से प्रादर ( विनय ) पूर्वक नित्य ही पड़ो॥१२१॥ अधिकारान्त मङ्गल :---
ये श्रीमद्भवनेषु विश्वनगरेष्वावास सर्वेषु चाधो मध्योर्ध्वसुभूमिसर्वगिरिषु श्रीमजिनेन्द्रालयाः। तत्रस्था जिनमूर्तयोऽतिसुभगाश्चत्यमादिस्थिता
या स्तास्ताः शिवशर्मभूतिजननोर्वन्चे स्तुवे मुक्तये ॥१२२॥ इतिश्री सिद्धांतसारदीपफमहाप्रन्थे भट्टारक श्रीसकलकोतिविरचित व्यन्तरदेवस्थितिभेवभूत्पादिवर्णनोनामत्रयोदशमोऽधिकारः ॥