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सिद्धान्तसार दीपक
अयोध्यालवराम्बुध्योर्मध्येऽर्धचन्द्रसत्रिभः । नानाजलचराकोर्णोपसमुद्रोस्तिघोमिभाक् ॥१२२॥
अर्थ:- : -- गङ्गा-सिन्धु नदियों के अन्तराल में श्राखण्ड है और श्राखण्ड के मध्य में चक्रवर्ती राजाओं के द्वारा भोग्य श्रेष्ठ अयोध्या नगरी है, तथा प्रयोध्या और लवगासमुद्र के मध्य में नाना प्रकार के जलचर जीवों से की और कल्लोल मालाओं से व्याप्त अर्धचन्द्र के सदृश एक उपसमुद्र
है ।। १२१ - १२२ ।।
म्लेच्छखण्ड के मध्य में स्थित वृषभाचल के स्वरूप का निरूपण करते हैं:उत्तरे भारते क्षेत्रे म्लेच्छखण्डे च मध्यमे । योजनानां शतोत्सेधो मूले शतं कविस्तृतः ।। १२३॥ विस्तीर्णो मध्यभागे स्यात् पञ्चसप्ततियोजनः । पञ्चाशद्योजनव्यासो मस्तके शाश्वतो महान् ।। १२४ ॥ गतच शनामधिश्चितो जिनालयाङ्कितः । वनतोरणसद्वेदी नानाभवन भूषितः ॥ १२५ ॥ । वृत्ताकारो हि चक्रे शगर्षहृद् वृषभाचलः । ऐरावतेऽप्ययं श्रेय ईवृशोऽद्रिः स्फुरत्प्रभः ।। १२६ ।
श्रर्थः - उत्तरभरत क्षेत्रस्थ मध्यम म्लेच्छखण्ड के मध्य में चक्रवर्तियों के मान को मर्दन करने
वाला वृत्ताकार एक वृषभाचल पर्वत है । जो १०० योजन ऊँचा, मूल में १०० योजन विस्तृत, मध्य
७५ योजन विस्तृत और शिखर पर ५० योजन विस्तृत, तथा भूतकालीन चक्रवर्तियों के नाम समूह से व्याप्त जिनालय से अलंकृत, वन तोरणद्वार उत्तमवेदी एवं अनेक भवनों से विभूषित, अकृत्रिम श्रौर महान है ।।१२३-१२६॥
जघन्य भोगभूमि का स्वरूपः-
हिमवन्तमथोल्लङ्घय क्षेत्र हैमवताह्वयम् । दशधा कल्पवृक्षादय' जघन्यं भोगभूतलम् ।। १२७॥ मद्यवाद्याशदीपांगा वस्त्रभाजनदामदाः । ज्योतिर्भूषागृहांगाश्चदशधाकल्पशाखिनः ॥१२८ ।। पात्रदानफलेनं ते तत्रोत्पन्नार्थदेहिनाम् । दक्षतेवशधाभोगान् सारान्सङ्कल्पितान्परान् ॥ १२६ ॥