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सिद्धान्तसार दोपक
धर्मस्य वर्तमानेऽभूत्काले सुदर्शनो बलः । जिनान्तरेऽरनाथस्य जातो नन्दी नरेश्वरः ।। २१७।। नन्दिमित्रो बभूव श्रीमल्लिनाथजिनान्तरे । सुनिसुव्रतनाथस्य जातो रामो जिनान्तरे ॥२१८॥ नेमिनाथस्य कालेऽभूत्पद्मः प्रवर्तमानकः । इत्यत्रोत्पत्तिकालाः स्युर्बलभद्रादिभूभृताम् ॥ २१६ ॥
अर्थ :- विजय नामक प्रथम बलदेव श्रेयांसनाथस्वामी के मान काल में अचल बलभद्र वासुपूज्य स्वामी के काल में, धर्म बलभद्र विमलनाथ स्वामी के काल में सुप्रभ श्रनन्तनाथ स्वामी के काल में और सुदर्शन बलदेव धर्मनाथ स्वामी के विद्यमान काल में उत्पन्न हुए थे। नन्दो बलदेव अरहनाथ स्वामी के अन्तरकाल में नन्दिमित्र मल्लिनाथ स्वामी के अन्तर काल में और राम मुनिसुव्रत नाथ के अन्तर काल में उत्पन्न हुए थे, तथा अन्तिम बलभद्र पद्म, मेमिनाथ स्वामी के विद्यमान काल में उत्पन्न हुए थे। इस प्रकार यहाँ बलभद्र प्रादि राजात्रों के उत्पत्ति काल हैं ।।२१५-२१६।।
अब नौ नारायणों के नाम, स्वभाव, शरीर का वर्ण और उत्सेध का कथन करते हैं :--
त्रिपृष्टाख्यो द्विपृष्टोऽथ स्वयंम्भूः पुरुषोत्तमः । ततः पुरुषसच पुण्डरीक स्त्रिखण्डभाक् ॥ २२० ॥ वत्ताख्यो लक्ष्मणः कृष्णो वासुदेवा इमे नव । रौद्राशयाः प्रकृत्या स्युस्त्रिखण्डभरताधिपाः ।।२२१॥ व्रतशीलतपोहीनाः पञ्चाक्षसुखलोलुपाः । उल्लसत्कृष्णवर्णाङ्गा-बलाङ्गोच्चसमोन्नताः ॥ २२२ ॥
अर्थः- १ पृष्ठ २ त्रिपृष्ठ ३ स्वयम्भू, ४ पुरुषोतम ५ पुरुषसिंह, ६ ( पुरुष ) पुण्डरीक, ७ ( पुरुष ) दन, ८ लक्ष्मण और कृष्ण ये नव वासुदेव स्वभावतः रौद्र परिणामी व्रत, शील एवं तप से हीन, पंचेन्द्रिय सुखों के लोलुपी तथा भरत क्षेत्र में श्रार्य खण्ड आदि तीन खण्डों के अधिपति हुए हैं । इन सभी के शरीरों का वर्णं कृष्ण एवं उत्सेध बलदेवों के सदृश अर्थात् क्रमशः ८० ७०, ६०, ५०, ४५, २६,२२,१६ और १० धनुष प्रमारण था ।। २२०-२२२॥
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अब सर्व नारायणों की श्रायु का कथन करते हैं लक्षाश्चतुरशीतिरचं वर्षाणामायुरजसा । त्रिपुष्टस्य द्विपुष्टस्यायुक्षाणि द्विसप्ततिः ॥ २२३॥