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एकादशोऽधिकारः
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मशका भमरा वंशाः पतङ्गा मधुमक्षिकाः। मक्षिका कीटकायाः स्युश्चतुरिन्द्रियजातयः ॥१३॥ जलस्थलनभो गामिनस्तिर्यञ्चो नरामराः । नारकाः श्रीजिनः प्रोक्ताः पञ्चाक्षाः सफलेन्द्रियाः ॥४॥ एतास्त्रसाङ्गिनः सम्यग्ज्ञात्वा गृहितपोधनाः । पालयन्तु समित्याः सर्वत्र स्वमिवान्यहम् ॥५॥ इति पृथ्च्यादिकायानां जातिभेदान जिनागमान् ।
प्राख्यायातः सतां वक्ष्ये कुलानि विविधानि च ।।६।। अर्थ:-दुःख से उद्धे गित त्रस जीब विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय के भेद से दो प्रकार के होते हैं ।।७६।। इनमें से कृमि आदि द्वोन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरोन्द्रिय के भेद से विकलेन्द्रिय जीव तीन प्रकार के होते हैं । मनुष्य, देव और तिर्थञ्च ये सकलेन्द्रिय अस हैं ।।६०॥ कमि, सीप, शंख, वालुका, कौंडी और जोंक प्रादि दो इन्द्रियों से चिह्नित इन जीवों को द्वीन्द्रिय जीव कहते हैं ॥८॥ कुन्थु, खटमल, जू, विच्छ, चींटी, दीमक और कानखजूरे श्रादि तीन इन्द्रियों से युक्त जीवों को केन्द्रिय जीव कहते हैं । ८२ ॥ मच्छर, भौंरा, डांस. पतङ्गा, मधुमक्खी, मक्खी और कोटक प्रादि चतुरिन्द्रिय जीव कहलाते हैं ॥३॥ जल-स्थल एवं नभनर तियंञ्च, मनुष्य, देव और नारकी ये जीव पंचेन्द्रिय होते हैं, इन्हें ही जिनेन्द्र भगवान ने सकलेन्द्रिय कहा है ।।१४। इस प्रकार त्रस जीवों के भेद प्रभेदों को भली प्रकार जान कर श्रावकों एवं तपोधनों को समितियों आदि के द्वारा अपनी आत्मा के सदृश ही सर्वत्र अस जीवों की रक्षा करना चाहिए ।।८।। इस प्रकार जिनागम से पृथ्वीकाय आदि छह काय के जीवों के जाति भेदों को कह कर अब अनेक प्रकार के कुल भेदों को कहूँगा ।1८६|| अब भिन्न भिन्न जीयों की कुलकोटियां कहते हैं :--
द्वाविंशकोटिलक्षाणि पृथ्वीनां स्युः कुलानि च । अपकायासु मतां सप्तकोटी लक्षारिण तेजसाम् ॥१७॥ कुलत्रिकोटिलक्षागि वायूनां च कुलान्यपि । स्युः सप्तकोटिलक्षाणि धनस्पस्यङ्गिनां तथा ॥८॥ कलानि कोटिलक्षाणि ह्यष्टाविशतिरेव हि । द्वीन्द्रियाणां तथा सप्तकोटीलक्षकुलानि च ।।६।। श्रीन्द्रियाणां भवन्त्यष्टकोटिलक्षकलान्यपि । तुर्याक्षाणां नवच स्युः कोटिलक्षकलानि च ।।६011