________________
सिद्धान्तसार दीपक प्रमाण है । इस प्रकार एक एक इन्द्र के पास नाव हैं प्रमुख जिनमें ऐसे सातों वाहनों का एकत्रित प्रमाए सठ लाख पचास हजार ( ६३५०००० ) है। अब प्रत्येक इन्द्र को प्रनीकों का एकत्रित योग और उनके महत्तर श्रादि कहते हैं:
षट्शेषाश्चाविकानीकानां संख्यागणना समा । प्राधानीकेन विजेया विशेषान्तरवजिता ॥१८॥ चतुःकोटघाचतुश्चस्वारिंशल्लक्षाः सहस्रकाः । पञ्चाशरचेति विज्ञेया संख्या गणितकोविदः ।।१०।। सर्वेकत्रीकृता सम्मानोकानां नादि । सप्त सप्त पृथक् कक्षायुक्तानां प्रवरागमे ॥११॥ षण्णां कमाघनीकानां स्वामी महत्तरोऽमरः । नर्तकोनामनोकेऽन्त्ये देवीमहत्तरी प्रभुः ॥१११॥ देवाः प्रकीर्णका प्राभियोग्याः किल्विषिकाः पृथक् ।
स्वल्पसम्पत्सुखोपेताः संख्यातीताः स्मृता जिनः ॥११२।। अर्थः–प्रश्व आदि छह अनीकों को संख्या का प्रमाण प्रथम अनीक प्रमाण हो जानना चाहिए, इसमें कोई अन्तर नहीं है ।। १०८ ।। जिनागम में गणितज्ञ पुरुषों के द्वारा सात सात कक्षामों से युक्त सातों पनीकों का पथक् पृथक एकत्रित योग चार करोड़ नवालीस लाख पचास हजार (४४४५००००) कहा गया है. यह प्रमाण एक एक इन्द्र का अलग अलग है ।। १०६-११० ॥ क्रम से छह अनीकों के स्वामी महिष, घोड़ा, रथ, गज, पयादे और गन्धर्व महत्तर देव हैं. तथा नृत्यको नामक सप्तम मनीक की स्वामी महत्तरी ( प्रधान ) देवी होती है ॥ १११ । प्रत्येक इन्द्र के पास अल्प सम्पत्ति और अल्प सुख से युक्त प्रकीर्णक पाभियोग्य और किल्वि षिक जाति के पृथक पृथक् प्रसंख्यात असंख्यात देव होते हैं, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ।।११२।।
प्रब असुरकुमारादि वेवों को देवांगनाओं, बन्लभिकानों और विक्रिया देवांगनापों का प्रमारग कहते हैं :
असुराणां च षट्पञ्चाशत्सहस्राणि योषितः । वेच्यो बालभिकाः सन्ति सहस्रषोडशप्रमाः ॥११३॥ दिव्याः पञ्चमहादेव्यः पञ्चेन्द्रियसुखप्रदाः । नागानां च स्त्रियः पञ्चाशत्सहस्रप्रमास्तथा ।।११४॥