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त्रयोदशोऽधिकारः
रत्नपीठाश्रिता मूले चतुर्दिक्षु विराजिताः । भौमेन्द्र पूजिताभिः स्यूजिनेन्द्रदिव्यमूर्तिभिः || ५५ ॥ मानस्तम्भारच चत्वारो मणिपीठत्रिकोर्ध्वगाः । शालत्रय युताः सन्ति सिद्धबिम्बादघशेखराः ॥५६॥
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चौड़ाई
है।
अर्थः- उम प्रत्येक नगरों में ३७ योजन २ कोस ऊँचे, मूल में १२३ योजन चौड़े, ऊपर २३ योजन चौड़े, शाश्वत, शुभ और द्वारों आदि से विभूषित प्राकार हैं ।।४७-४८ ।। इन प्राकारों में स्थित द्वारों में से प्रत्येक द्वार की ऊँचाई ६२३ योजन इन द्वारों के ऊपर ७५ योजन ऊंचे और ३११ योजन चौड़े मणिमय प्रासाद हैं । जिनके मध्य में सुधर्मा नाम के मणिमय मण्डप सुशोभित होते हैं ।। ५०-५१ ।। जो ६ योजन ऊंचे १२३ योजन चौड़े और ६ योजन चौड़े हैं | | उस सभा मण्डप के द्वारा अत्यन्त रमणीक, दो योजन ऊँचे और एक योजन चौड़े हैं। ११५३ ॥ इसी प्रकार का वर्णन सर्व इन्द्रों ( दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रों ) के नगरों में जानना चाहिए । नगरों की चारों दिशाओं में (एक एक ) चार चैत्य वृक्ष हैं। जिनके मूल में चारों दिशाओं में रत्नपीठ के श्राश्रित, व्यन्तर देवों से पूजित जिनेन्द्र भगवान के दिव्य मूर्तियाँ हैं । ५४-५५ ।। इन्हीं चारों वृक्षों के सामने तीन तीन मणिमय के ऊपर तीन कोट से युक्त चार मानस्तम्भ हैं, जिनके शिखर सिद्ध भगवान के विम्बों से युक्त हैं ||२६||
श्रम पिशाचादि व्यन्तर देशों के चेत्य वृक्षों के भिन्न भिन्न नाम, उनमें स्थित प्रति
बिम्ब एवं मानस्तम्भों का वर्णन करते हैं :
प्रशोकश्चम्पको नागस्तुम्बुरुश्च घटद्रुमः । बदरी तुलसी वृक्षः कदम्बोटहिया इमे ॥५७॥ मणिपीठाग्रभागस्थाः पृथ्वीसारमयोन्नताः । भवनेषु क्रमात्सन्तिष्टानां व्यन्तरात्मनाम् ॥ ५८ ॥ हेषां मूले चतुर्दिक्षु चतस्रः प्रतिमाः पृथक् । चतुस्तोरणसंयुक्ता दीप्ता दिव्या जिनेशिनाम् ॥५६॥ मानस्तम्भोऽस्ति चैकैकः एकैकां प्रतिमां प्रति । मुक्तास्रग्मणिघण्टादयस्त्रिपीठशाल सूषितः ॥६०॥
अर्थ :- किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच इन आठों व्यन्तर
देवों के क्रम से अशोक, चम्पक, नाग ( केसर ), तुम्बरु, बट, बदरी, तुलसी और कदम्ब नाम वाले चैत्यवृक्ष होते हैं । ये ऊँचे ऊँचे वृक्ष पृथ्वी के सारमय ( पृथ्वीकायिक ) और मरिगपीठ के अग्रभाग पर