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त्रयोदशोऽधिकारः
मङ्गलाचरण एवं प्रतिज्ञा :--
असंख्यध्यन्तरावासस्थितान् सर्वान् जिनालयान् । व्यन्तरामरवन्धादि प्रतिमाभिः सह स्तुवे ||१|| अथ पञ्चगुरुन्नत्वा विश्वकल्याणसिसिदान् ।
करिष्ये वर्णनं सिद्धय ह्यष्टधाभ्यन्तरात्मनाम् ॥२॥ अर्थ:-व्यन्तर देवों से वन्दनीय और पूजनीय व्यन्तर देवों के असंख्यात भावासों में स्थित प्रतिमानों सहित सम्पूर्ण जिनालयों का मैं स्तवन करता है। इसके बाद विश्व का कल्याण करने वाले और सिद्धि प्रदान करने वाले पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करके अब मैं प्रात्म सिद्धि के लिये पाठ प्रकार के व्यन्तर देवों का वर्णन करूगा ।।२।। व्यन्तर देवों के पाठ भेद :
माविमाः किन्नरादेवाः किम्पुरुषा महोरगाः। गन्धर्वाख्यास्ततो यक्षा राक्षसा मूतनिर्जराः ॥३॥ पिशाचाश्च हमी ज्ञेया अष्टधा व्यन्तरामराः ।
अमीषां वर्णभेदादीन् पृथग्वक्ष्येऽधुनाचिदे ॥४॥ अर्थः-किन्नरदेव, किम्पुरुषदेव, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ये पाठ प्रकार के व्यन्तर देव हैं। अब ज्ञान प्राप्ति के लिये इनके शरीर का वर्ण और इनके भेद अलग अलग कहता हूँ॥३-४॥ अब व्यन्तर देवों के शरीर का वर्ग कहते हैं :--
प्रियगुफलभाः किन्नराश्च किम्पुरुषाः सिताः। महोरगा हि कृष्णाङ्गा गन्धर्वयक्षराक्षसाः ॥५॥ हेमप्रभास्त्रयो भूताः कृष्णवर्णाः पिशाचकाः । बहुलप्रभसद्गात्रा अमीषां मेद उच्यते ॥६॥