________________
सिद्धान्तसार दीपक
इत्युक्तवर्णनंश्चान्यरागमोक्तसवर्णनः । राजन्ते भवनान्युच्चैदिव्यसम्पत्समुच्चयैः ।।४७॥ सर्वाणि च समस्तानां दक्षिणाशामरेशिनाम् ।
दशानां चोत्तरेन्द्राणां भोग्यानि पुण्यपाकतः ॥४८॥ अर्थः-पूर्व में असुरकुमार आदि दश कुलों के प्राश्रित भवनों की जो संख्या कही है, उन्हीं के मध्य में इन्द्रों के भवन अवस्थित हैं । रत्नों से निर्मित चमरेन्द्र के उच्च भवनों की संख्या ३४ लाख है। भूतानन्द के भवनों को संख्या ४४ लाख, वेणु के ३८ लाख, पूर्ण के ४० लाख, जलप्रभ इन्द्र के ४० लाख, हरिषेण के ४० लाख, अग्निशिखी के ४० लाख, अमितगति के ४० लाख पोर घोष नामक ! इन्द्र के भी ४० लाख भवन हैं, तथा वेलाजन के उत्तम भवन ५० लाख हैं ।।३४-३८।। उत्तरेन्द्रों में। वरोचन के भवनों को संख्या ३० लाख, धरणानन्द के ४० लाख, वेणुधारी के ३४ लाख, वशिष्ठ इन्द्र क ३६ लास्त्र, जलकान्त के ३६ लाख, हरिकान्त के ३६ लाख, अग्निवाहन के ३६ लास्त्र, अमितवाहन के ३६ लाख, महाधोष इन्द्र के ३६ लाख और प्रभंजन इन्द्र के ४६ लाख भवन हैं । इस प्रकार उपयुक्त १७७२ लाख) संख्या से युक्त ये सभी भवन रत्नमय हैं ।।३६-४३।। ये प्रत्येक भवन उन्नत चैत्यालयों से अलंकृत हैं. दिव्य चैत्यवृक्षों, मानस्तम्भों, कूटों और ध्वजा समूहों से विभूषित हैं. देवांगनाओं के समूहों से एवं देवों को सैन्य समूहों से भरे रहते हैं, गीत, नृत्य एवं वाद्य प्रादि से और जिन पूजन के करोड़ों उत्सवों से रम्य हैं, देदीप्यमान उनम मणियों को भित्तियों से निर्मित हैं, दिव्य प्रामोदों से परिपूर्ण हैं और पांचों इन्द्रिय के सम्पूर्ण सुखों को देने वाले हैं ॥४४-४६।। इस प्रकार उपर्युक्त वर्णनों से, प्रागमोक्त एवं अन्य वर्णनों से तथा अति विशाल दिव्य सम्पत्ति समूहों से वे दक्षिण दिशागत सम्पूर्ण भवन अत्यन्त शोभायमान होते हैं ।।४७।। यह सब वर्णन दक्षिण दिशागत समस्त (१०) इन्द्रों का है, उत्तर दिशागत दसों इन्द्रों के भी पूर्व पुण्य के फल से सर्व भोग्य पदार्थ इसी प्रकार जानना चाहिए ।।४॥
अब उस्कृष्ट, मध्यम और जघन्य भवनों का प्रमाण तथा जिनेन्द्र प्रतिमा युक्त दस प्रकार के कल्पवृक्षों का वर्णन करते हैं :
जम्बूद्वीपप्रमध्यासा जघन्या सद्गृहा मताः । संख्पयोजनविस्ताराः केचिच्च मध्यमाः शुभाः ।।४।। प्रसंख्ययोजनव्यासा उत्कृष्टा भवनोत्कराः । क्रमेणैतेऽसुरादीनां दशधा चत्यपादपाः ॥५०॥ प्रश्वत्थः सप्तपर्णाख्यः शाश्वतः शाल्मली उमः । जम्बूश्च वेतसोवृक्षोऽथप्रियङ्गुः पलाशकः ॥५१॥