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सिद्धान्तसार दीपक वेणुश्च घेणुधारी हि पूर्णो वशिष्ठनामकः । इन्द्रो जलप्रभाभिख्यो जलकात्यमिधानकः ॥२६॥ हरिषेणो हरित्कान्तोऽग्निशिखी चाग्निवाहनः । इन्द्रोऽभितगतिर्नाम्ना तथेन्द्रोऽमितवाहनः ॥२७।। घोषाख्येन्द्रो महाघोषो वेलाञ्जनः प्रभजनः । एतेऽखिलामराभ्या विध्यालङ्कारभूषिताः ॥२६॥ प्रसुरादिफलानां च क्रमेण द्वि वि संख्यया । भवन्ति विशतिश्चेन्द्राः स्त्रीमहद्धिसरान्विताः ।।२९॥ दक्षिणायां दिशि स्वामी चमरेन्द्रो वसेन्महान् । उत्तरादिग्विभागे च वैरोचनोऽमरैः समम् ॥३०॥ एवं शेषौ पती द्वौ द्वौ दक्षिणोत्तरयोदिशो। इन्द्रो च भवतः छत्रसिंहासनाद्यलकृती ॥३१॥ दशानामसुरादीनां द्वौ द्वौ चेन्द्रो प्रतिस्फुटम् । स्याता द्वौ द्वौ प्रतीन्द्रौ च दिव्यसम्पत्सुरावृतौ ॥३२॥ सर्वे पिण्डीकृता ज्ञेयाः प्रतीन्द्रा विशतिप्रमाः ।
दिव्यरूपधरा दिव्याणिमाद्यष्टद्धिमण्डिताः ॥३३।। अर्थ:-चमर-वैरोचन; भूतानन्द-धरणानन्द ; वेणु-वेणुधारी; पूर्ण-वशिष्ठ; जलप्रभ-जनकान्त; हरिषेण हरित्कान्त; अग्निशिखी-अग्निवाहन ; अमितगति-अमितवाहन; घोष-महाघोष; वेलंजन और प्रभंजन ये क्रम से असुरकुमारादि दश कुलों के दो दो इन्द्र हैं । ये बोसों इन्द्र समस्त भवनवासी देवों से सम्मानित, दिव्य अलंकारों से विभूषित, अनेक देवियों और महाऋद्धिधारी देवों से समन्वित रहते हैं ।।२५-२६।। इनमें चमरेन्द्र दक्षिण दिशा का स्वामी होने से दक्षिण में रहता है और वैरोचन उत्तर दिशा का स्वामी होने से अनेक देवों के साथ उत्तर में निवास करता है ।।३०।। इसी प्रकार छत्र, सिंहासन प्रादि से अलंकृत शेष नव कुलों के दो दो इन्द्र क्रमश: दक्षिण और उत्तर दिशा में निवास करते हैं ।।३१।। जिस प्रकार असुरकुमार प्रादि दश कुलों के दो दो इन्द्र होते हैं, उसी प्रकार दिव्य वैभव और अनेक देवों से परिवेष्ठित प्रत्येक कुल के दो दो प्रतीन्द्र होते हैं ।।३२॥ दिव्य रूप को धारण करने वाले और प्रणिमा आदि आठ दिव्य ऋद्धियों से मण्डित इन सर्व प्रतीन्द्रों की एकत्रित संख्या भी बीस ही है, ऐसा जानना चाहिए ।।३३॥