________________
द्वादशोऽधिकार :
[ ४४१ अर्थः-चमरेन्द्र को अन्तः परिषद् में पारिषद् देवों की संख्या २८ हजार, मध्य परिषद् में ३० हजार और बाह्य परिषद् में ३२ हजार है ॥७५-७६॥ वैरोचन के अन्त: परिषद् के देव २६ हजार, मध्य परिषद् के इन्द्र के चरणों में नतमस्तक होने वाले पारिषद देव २८ हजार और बाह्य परिषद् के देव ३० हजार कहे गये हैं ।।७७-७८।। भूतानन्द के अन्तः परिषद् के देव जिनेन्द्र भगवान् ने छह हजार मध्य परिषद् के पारिषद् देव पाठ हजार और बाह्य परिषद् के दश हजार देव कहे हैं ।।७६-८०॥ धरणानन्द प्रादि सत्रह इन्द्रों के पृथक पृथक् अन्तः परिषद् के देव चार, चार हजार, मध्य परिषद् के छह छह हजार और "हा परिषद के पारिएद देत पाठ-पाठ लार हैं।८१-८२।। भगवान् जिनेन्द्र के द्वारा प्रागम में अन्तः परिषद् के अधिनायक देव का नाम समित्, मध्यपरिषद् के अधिप देव का नाम चन्द्र और बाह्य परिषद् के अधिनायक देव का नाम यदु कहा है । प्रागम में प्रत्येक इन्द्रों के पारिषद देवों की संख्या भी पूर्वोक्त प्रकार ही कही गई है ।।८३-८४।। अब अनीक देवों के भेद और चमरेन्द्र के महिषों की संख्या कहते हैं :--
महिषाः प्रवरा अश्वा रथा गजाः पदातयः । गन्धर्वा वरनर्तक्य इमे सप्तविधा मताः ॥५॥ अनोका: पुण्यजाः सप्त सप्तकक्षान्विताः पृथक् । प्रत्येकं प्रीतिदाः प्रीता प्रसुरेन्द्रस्य सर्वदा ।।६।। नावाच परुडा हस्तिनो महामकरास्तथा । उष्ट्राश्च खगिनः सिंहाः शिविका तुरगा इमे ॥७॥ नवभेदा अनीकाः प्रत्येकं सुरेन्द्रपुण्यमाः । सुरबिक्रियजाः सप्त सप्तकक्षाश्रिताः शुभाः ॥५॥ मुख्या प्राधाश्च नागादीनां नवानां सुधाशिनाम् । अनुक्रमेण शेषाणां शक्रप्रीतिकराः पराः ॥८६॥ शेषा ये चासुरेन्द्रस्प प्रागुक्तास्तुरगादयः । षडनीकास्त एव स्यु गादीनां यथाक्रमम् ।।६।। चमरस्यादिमेऽनीके चतुःषष्टिसहस्रकाः । महिषाः सन्ति चोत्तुङ्गा दीप्ताङ्गाः सुरमण्डिताः ॥६॥ तेभ्यः शेषेषु सर्वेषु महिषानीकषट्स्वपि । प्रत्येक महिषाः सन्ति द्विगुणद्विगुणप्रमाः ॥६२||