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द्वादशोऽधिकारः
अथवा वेत्रलोक'त्वादूर्ध्वलोकाश्रिताः स्मृताः ।
यथास्थानस्थितान् वक्ष्ये क्रमात् तान् सह नाकिभिः ॥७॥
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अर्थ :- जिनेन्द्र भगवान ने धर्म का फल प्राप्त करने वाले देव चार प्रकार के कहे हैं - १ भवन बासी, २ व्यन्ता, ३ ज्योतिषी और ४ कल्पवासी (विमानवासी ) ||३|| भवनवासो भोर व्यंतरों के भवन अधोलोक में हैं किन्तु व्यन्तरों के गृह - प्रवास मध्यलोक में मेरु पर्वत के अग्रभाग पर्यन्त भी हैं। विशेषार्थः - त्रिलोकसार में व्यन्तरों के निवास तीन प्रकार के कहे हैं - १ भवनपुर, २ श्रावास और ३ भवन द्वीप समुद्रों मे जो स्थान हैं उन्हें भवनपुर कहते हैं । तालाब, पर्वत आदि पर जो निवास हैं उन्हें आवास कहते हैं और चित्रा पृथिवो के नीचे जो स्थित हैं उन्हें भवन कहते हैं ||४|| ज्योतिषी देवों के विमान चित्रा पृथिवी के ( ऊपरी ) तल से ७६० योजन की ऊंचाई से लेकर ऊपर (नो सौ योजन ) तक हैं ||५|| चित्रा पृथिवी के तल से सौधर्म श्राश्रित क्षेत्र है, उसके श्राश्रय से रहने बाले देव भी स्वर्ग लोक प्राश्रित जानना चाहिए। अथवा चित्रा पृथिवी तल पर देव रहते हैं इसलिए इसको ऊर्ध्वलोक प्राश्रित कहा गया है। देवों के स्थान कहां पर स्थित हैं उसका और उनके साथ देवों का यथाक्रम से वर्णन करूँगा ।।६-७ ।।
अब भवनवासी देवों के स्थान विशेष का वर्णन करते हैं। : चित्राभूमि विहायाधः खरांशे भवनेशिना । नागादीनां नवानां स्युर्महान्ति भवनानि च ॥ ततोऽसुरकुमाराणां स्फुरद्रत्नमयान्यपि । भवनान्येव विद्यन्ते पङ्कभागे द्वितीयके ॥६॥ चित्राभूमेरो भागेऽद्धियुक्त सुधाशिनाम् । योजनद्विसहस्रान्तं भवन्ति शाश्वता गृहाः ॥ १० ॥ योजनानां द्विचत्वारिंशत्सहस्रान्तभूतले । महद्धियुतदेदानां विद्यन्ते प्रवरा गृहाः ।।११।। लक्षयोजनपर्यन्तं चित्राभूमेरधस्तले ।
मध्यमद्धियुतानां स्युर्वेधानां विपुलालयाः ॥ १२ ॥
अर्थ :- चित्रा भूमि को छोड़ कर (चित्रा के ) नीचे खर भाग में नागकुमार आदि नव प्रकार के भवनवासी देवों के महान वैभवशाली (त्रिमान ) भवन हैं, और असुरकुमारजाति वाले भवनवासी देवों के रत्नमयो भवन दूसरे पङ्कभाग में है !s - चित्रा पृथ्वी के अधोभाग से दो हजार योजन नीचे
१. इमे देवां सन्ति तेन काश्रिता भवन्तु ।