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एकादशोऽधिकारः
[ ४१७ योजन, नाणेन्द्रिय का ह योजन, चक्षुरिन्द्रिय का विषय क्षेत्र ४७२६३. योजन १ कोस, १२१५ धनुष, १४ हाथ २ अंगुल और यव प्रमाण है, तथा श्रोशेन्द्रिय का उस्कृष्ट विषय क्षेत्र १२ योजन प्रमाण है, चक्षुरिन्द्रिय आदि का यह उत्कृष्ट विषय क्षेत्र ऋद्धिवान् मुनिराजों एवं चक्रवर्तियों के ही होता है ।।१५६-१६सा अब एकेन्द्रियादि जीवों की संख्या का प्रमाण कहते हैं :---
अर्थकाक्षाविजीवानां प्रमाणं पृथगुच्यते । धनस्पती निकोतानिनोऽनन्ताः प्रोविता जिनः ॥१६४।। पृथिवीकायिका प्रकायिकास्तेजोमयाङ्गिनः। वायकाया इमे सर्वे प्रत्येक गदिता जिनः ॥१६॥ असंख्यलोकमात्राश्चासंख्थलोकस्य सन्त्यपि । यावन्तोऽत्रप्रदेशास्तावन्मात्राः सूक्ष्मकायिकाः ॥१६६।। पुनस्ते पृथियोकायायापचतुविध वादराः । पृथग धासंस्थमात्रा प्रबं विशेषोऽस्ति चागमे ।।१६७॥ द्वोन्द्रियास्त्रीन्द्रियास्तुर्येन्द्रियाः पञ्चेन्द्रिया मताः । प्रत्येकं चाप्यसंख्याताः श्रेण्यः परमागमे ॥१६८।। प्रतरागुलसंमस्यासंख्येयभाग सम्मिताः ।
प्रथ वक्ष्ये गुणस्थानः संख्याश्वभ्रादिजाङ्गिनाम् ॥१६॥ अर्थ:--अब एकेन्द्रिय प्रादि जीवों का पृथक् पृथक् प्रमाण कहते हैं । वनस्पतिकायिक जीवों में जिनेन्द्र भगवान् ने निगोद जीवों को अनन्तानन्त कहा है । १६४॥ जिनेन्द्र देव के द्वारा बादर पृथ्वीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक और बादर वायुकायिक जीव असंख्यातलोक मात्र अर्थात् असंख्यातासंख्यात कहे गये हैं, और प्रसंख्यातलोक के प्रदेशों का जितना प्रमाण है पृथक पृथक उतने ही प्रमाण सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्मअग्निकायिक तथा सूक्षम वायुकायिक जीव कहे गमे हैं ॥१६५-१६६।। पुनः बादर पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकायिक जीव पृथक् पृथक् असंख्यात-असंख्यात ही हैं, आगम में यह विशेष है ।।१६७।। परमागम में द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जोत्रों का पृथक् पृथक् प्रमाण असंख्पात घेणी कहा गया है। अर्थात् द्वीन्द्रिय जीव असंख्यात श्रेपो प्रमाण हैं, श्रीन्द्रिय जीव असंख्यात श्रेणो प्रमाण हैं, इत्यादि (परन्तु पूर्व पूर्व द्वीन्द्रियादिक की अपेक्षा उत्तरोत्तर त्रीन्द्रियादिक का प्रमाण क्रम से होन होन है और इसका प्रतिभागहार प्रावलि का असंख्यातवां भाग है) । असंख्यात घेणी का प्रमाण प्रतरांगुल का असंख्यातवा