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एकाविहार
[ ४२१ असंख्यातगुणाः श्रेणिद्वादशवर्गमूलखण्डित श्रेण्यकभाग परिमिताः स्युः द्वितीय पृथिवी नारकेभ्यः प्रथमायां पृथिव्यां नारवा असंख्यातगुणाः, घनाङ गुलबर्गमूलमायाः श्रेणयो भवन्ति ।
अर्थ:--सतम पृथ्वी में नारकी जीव सबसे कम आर्थात श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । (सात राजू को भगी होती है) श्रेणी के दूसरे वर्गमूल से श्रेणी को भागित करने पर जो लब्ध प्राम होता है, उतने प्रमाण सम नरक के नारकी जीवों की संख्या है । सप्तम पृथ्वी से छठवीं पृथ्वो में नारकी जोब असंख्यात गुरखे हैं। श्रेणी के तृतीय वर्गमूल से श्रेणी को अपहुल ( भागित ) करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतने प्रमाण नारको जीव छठवीं पृथ्वी में हैं। छठवीं पृथ्वी से पांचवीं पृथ्वी के नारकी जीव असंख्यातगुरणे हैं । अंगो के छठवें वर्गमूल से श्रेणी को भागित करने पर जो लब्ध प्रान हो उतने प्रमाण पाँचवे नरक के नारको जीवों को संख्या है। पांचवीं पृथ्वी से चतुर्थ पृथ्वी में नारको जीव असंख्यातगुरणे हैं 1 घेणी के अष्टम वर्गमूल से श्रेणी को भाजित करने पर जितना लब्ध प्राप्त होता है, उतने ही प्रमाण चतुर्थ पृथ्वी के नारकी जीवों का है । चतुर्थ पृथ्वो से तृतीय पृथ्वी के नारकी जीव असंख्यात गुणे हैं। श्रेणी के दशवें वर्गमूल से वेणा को भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतनी संख्या प्रमाग जीव तृतीय पृथ्वो में हैं । तृतीय पृथ्वी से द्वितीय पृथ्वी के नारको जोव असंख्यात गुणे हैं। श्रेणो के बारहवें वर्गमूल' से श्रेणी को भाजित करने पर जो खब्ध प्राप्त हो, उतने प्रमाण जोव द्वितीय पृथ्वी में हैं, वे श्रेणों के एक भाग प्रमाण प्राप्त होते हैं। द्वितीय पृथ्वी से प्रथम पृथ्वी के नारको जीव असंख्यात गुरगे हैं, वे संख्या में घनांगल के वर्ग मूल प्रमाण श्रेणियों के बराबर हैं, अर्थात् श्रेणी को घनांगुल के वर्गमूल से गुणित करने पर जो संख्या प्राप्त हो तत्प्रमाण (प्रथम पृथ्वी में नारको ) हैं।
अब तियंचगति को अपेक्षा अन्पबहुत्व कहते हैं :--
पञ्चेन्द्रिया हि तिर्यश्चः सर्वस्तोका महीतले । भवन्ति प्रतरासंस्वातमाग प्रमितास्ततः ॥१७६॥ पञ्चाक्षेभ्यश्चतुर्याक्षाः स्युविशेषाधिका भुवि । स्वकीयराश्यसंख्यातभागमात्रेण दुःखिनः ।।१७७।। तुर्याक्षेभ्यस्तथा द्वीन्द्रियाः विशेषाधिका मताः । विशेषाः स्वस्वराशेश्चासंख्यातभागमात्रकाः ॥१७॥ द्वीन्द्रियेभ्यस्तथा त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः स्मृताः । विशेष: स्वस्वराशेरसंख्येयभागमात्रकाः ॥१७६।।