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सिद्धान्तसार दीपक श्रोन्द्रियेभ्यस्तथैकाक्षा अनन्तगुणसम्मिताः।
प्रथ वक्ष्ये नृणां संस्थापबहुत्वं यथागमम् ॥१०॥ अर्थः-तियं च राशि की अपेक्षा संसार में पंचेन्द्रिय तियंत्र जीव सर्व स्तोक अर्थात् प्रतर के ' असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । पंचेन्द्रिय तिर्यचों से अत्यन्त दुःख से युक्त चतुरिन्द्रिय जीव विशेष अधिक हैं । अर्थात् पंचेन्द्रिय तिर्यचों की राशि के असंख्यातवें भाग प्रमाण अधिक हैं। चतुरिन्द्रिय जीवों मे वीन्द्रिय जीव विशेष अधिक है । वह विशेष का प्रमाण अपनी अपनी राशि अर्थात् चतुरिन्द्रिय राशि का असंख्यातों भाग है। द्वीन्द्रिय जीव राशि से त्रीन्द्रिय जीव विशेष अधिक है । विशेष का प्रमाण अपनी अपनी राशि अर्थात् द्वीन्द्रिय जीव राशि का असंध्यातवाँ भाग मात्र है । श्रीन्द्रिय जीव राशि के प्रमाण से एकेन्द्रिय जोव राशि अनन्तगुणी अधिक है। अब मैं पागम के अनुसार मनुष्यों की संख्या का अल्पबहुत्व कहूँगा ।।१७६-१८०।। अब मनुष्य गति में स्थित मनुष्यों का प्रल्पबहुत्व कहते हैं :--
भवन्ति नृगतौ सर्वस्तोकाः संख्यातमानवाः । अन्तर्वीपेषु विश्वेषु पिण्डिताम्तेभ्य एव च ॥११॥ अन्तर्वीपमनुष्येभ्यः संख्यातगुणसम्मिताः। दशसूत्कृष्ट सदभोग भूमिषु प्रवरा नराः ॥१२॥ तेभ्यो मांश्च संख्यातगुणाधिका जिनः स्मृताः। हरिरम्यक वर्षेषु द्विपञ्चसु सुभोगिनः ॥१३॥ तेभ्य मार्याश्च संख्यातगुणा दशसु सन्ति वै । सु हैमवतहैरण्यवतान्त भोगभूमिषु ॥१४॥ तेभ्योऽपि भरत रावतेषु द्विपञ्चसु स्फुटम् । कर्मभूमिषु संख्यातगुणा नराः शुभाशुभाः ॥१८॥ तेन्यः पञ्चविवेहेषु संख्यासगुणमानवाः । तेभ्यः सन्मूच्र्छनोत्पना असंख्यातगुणा नराः ॥१६॥ भवन्ति श्रेष्यसंख्यातकभागमात्रका अपि । स च श्रेणेरसंख्यातभाग पाण्यात प्रागमे ।।१८७॥ असंख्ययोजन: कोटोकोटिप्रवेशमात्रकाः । एते स्पर्लबध्यपर्याप्ता माः सन्मूर्छनोद्भवाः ॥१८॥