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सिद्धान्तसार दीपक
स्पर्शजिह्वाक्षकायायुः प्राणाश्चत्वार एव हि । प्रागमे फोतिता द्वीन्द्रियापर्याप्ताङ्गिनां जिनैः ॥२०३॥ स्पर्शन्द्रियशरीरायुः प्राणास्त्रयो मता जिनः ।
अपर्याप्तपृथिध्यादिपञ्चस्थावर जन्मिनाम् ।।२०४॥ · अर्थ:- गृहीत आहार वर्गणा को खल-रस प्रादि रूप परिणामाने की जीव की शक्ति के पूर्ण होने को पर्याप्ति कहते हैं ।) पाहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन इस प्रकार पर्याप्ति के छह भेद हैं। संजो पंचेन्द्रिय जीवों के छहों पर्यानियां होती हैं ।। १६३॥ असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के और विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों के मन पर्याप्ति के बिना पांच तथा एकेन्द्रिय जीवों के मन और वचन के बिना चार पर्याप्तियाँ होती हैं ॥१६४।।
प्राण :-( जिनके सद्भाव में जीव में जीवितरने का और वियोग होने पर मरणपने का व्यवहार हो उन्हें प्राण कहते हैं ) । पाँच इन्द्रिय (स्पर्शन. रसना, नाणा, चक्षु, कर्ण ) प्राण, मनोबल, बचनबल और कायबल के भेद से तोन बल प्राण, एक श्वासोच्छ्रवास और एक प्रायु इस प्रकार दश प्राण होते हैं 11१६५।। प्रसंज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोबल को छोड़ कर शेष नव प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रिय जीवों के श्रीन्द्रिय को छोड़ कर पाठ प्राण, श्रीन्द्रिय जीवों के चक्षु को छोड़कर सात प्राण और द्वीन्द्रिय जीवों के प्राणेन्द्रिय को छोड़ कर शेष छह प्रारण होते हैं ।।१९६-१९७। पृथिवी कायिक से लेकर वनस्पति कायिक पर्यन्त पांचों स्थावर जोवों के रसनेन्द्रिय और वचनश्ल को छोड़कर शेष चार प्राण होते हैं ॥१९॥ संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्यातक जोवों के पाँच इन्द्रियाँ. कायबल और आयु इस प्रकार सात प्रारण होते हैं ॥१६॥ असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जोबों के पांच इन्द्रियाँ. कायबल और प्रायु ये ही सात प्राण होते हैं ।।२०।। अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों के चार इन्द्रियाँ. प्रायु और काय बल ये छह प्राण होते हैं ।। २०१॥ अपर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों के स्पर्शन, रसना और प्राण ये तीन इन्द्रियाँ, आयु और कायबल ये पांच प्रारण होते हैं ।। २०२ ।। जिनेन्द्रों के द्वारा श्रागम में अपर्यापक वीन्द्रिय जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, प्राय और कायबल ये चार प्रारण कहे गये हैं ।।२०३।। जिनेन्द्र के द्वारा स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल और प्रायु ये तीन प्राण अपर्याप्तक पृथिवो आदि पांच स्थावर जीवों के कहे गये हैं ।। २०४॥ अब जीवों की गति-प्रागति का प्रतिपादन करते हैं :--
ये पृथ्वीकायिकाप्कायिका वनस्पतिदेहिनः । द्विश्रितुर्याक्षपदाक्षा लब्ध्यपर्याप्तकाश्च ये ॥२०॥ पृश्यादिकवनस्पत्यन्ताः सूक्ष्माः निखिलाश्च ये । जोवाः पर्याप्तकापर्याप्ताप्लेजोवायुकायिकाः ॥२०६॥